यूपी में जिस गठबंधन को माना जा रहा था बीजेपी के लिए कठिन चुनौती, वो नाकाम कैसे हो गया?
12 जनवरी 2019. लोकसभा चुनाव से ठीक पहले का वक्त. उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बड़ी घटना होती है. बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की…
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12 जनवरी 2019. लोकसभा चुनाव से ठीक पहले का वक्त. उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बड़ी घटना होती है. बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की अध्यक्ष मायावती और समाजवादी पार्टी (एसपी) के प्रमुख अखिलेश यादव एक साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस करके गठबंधन के तहत चुनाव में उतरने का ऐलान करते हैं.
बीएसपी और एसपी के बीच यह गठबंधन होना कोई आम बात नहीं थी, दोनों पार्टियों ने 2 दशक से ज्यादा की अपनी कड़ी प्रतिद्वंदिता और कड़वी यादों को पीछे छोड़ते हुआ यह कदम उठाया था. इसका बड़ा मकसद था- भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के विजय रथ को रोकना.
प्रेस कॉन्फेंस के दौरान मायावती ने कहा, ”(राममनोहर) लोहिया जी के बताए रास्ते पर चल रही समाजवादी पार्टी से पहले 1993 में, कांशीराम जी और मुलायम सिंह यादव जी के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को चुनावी गठबंधन के तहत लड़ा गया था. उसके परिणामस्वरूप, उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में हवा का रुख पूरी तरह बदलते हुए और बीजेपी जैसी घोर जातिवादी और साम्प्रदायिक पार्टी को पछाड़ते हुए सरकार भी बनाई गई थी. हालांकि यह गठबंधन कुछ गंभीर कारणों के चलते ज्यादा लंबे समय तक नहीं चल सका था, लेकिन अब देश में जनहित को, उन कारणों से ऊपर रखते हुए, खासकर 2 जून 1995 के लखनऊ गेस्ट हाउस कांड से भी, एक बार फिर हमने आपस में चुनावी समझौता रखने का फैसला लिया है.”
इस गठबंधन को बीजेपी के लिए कठिन चुनौती बताया जा रहा था क्योंकि यूपी की दो मुख्य विपक्षी पार्टियां ही साथ मिलकर उसके खिलाफ चुनावी मैदान में उतर रही थीं.
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हालांकि, जब 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजे आए तो तमाम गणनाओं को गलत साबित करते हुए उत्तर प्रदेश में यह गठबंधन बुरी तरह से नाकाम साबित हुआ. प्रदेश की 80 सीटों में से बीएसपी के खाते में 10 सीटें आईं, जबकि एसपी 5 सीटें ही जीत पाई, जबकि बीजेपी 62 सीट जीतने में सफल रही.
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इसके बाद 24 जून 2019 को मायावती कई ट्वीट कर कहती हैं, ”(हमने) एसपी के साथ सभी पुराने गिले-शिकवों को भुलाने के साथ-साथ 2012-17 में एसपी सरकार के बीएसपी और दलित विरोधी फैसलों, प्रमोशन में आरक्षण विरुद्ध कार्यों और बिगड़ी कानून व्यवस्था आदि को दरकिनार करके देश और जनहित में एसपी के साथ गठबंधन धर्म को पूरी तरह से निभाया. लेकिन लोकसभा आमचुनाव के बाद एसपी का व्यवहार बीएसपी को यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या ऐसा करके बीजेपी को आगे हरा पाना संभव होगा? जो संभव नहीं है. अतः पार्टी और मूवमेंट के हित में अब बीएसपी आगे होने वाले सभी छोटे-बड़े चुनाव अकेले अपने बूते पर ही लड़ेगी.”
मतलब एसपी-बीएसपी का यह गठबंधन करीब 6 महीने में ही टूट गया. ऐसे में सवाल उठा कि सियासी समीकरणों में यह गठबंधन फिट क्यों नहीं बैठ पाया. इसके जवाब में एक कारण बहुत चर्चा में रहा कि दोनों पार्टियां एक दूसरे को अपना-अपना मूल वोटबैंक ट्रांसफर नहीं करा पाईं. मगर क्या इसकी यही वजह थी? चलिए, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) पोस्ट-पोल सर्वे के आधार पर इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं.
2019 में क्यों नाकाम रहा एसपी-बीएसपी गठबंधन?
2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में एसपी और बीएसपी, दोनों पार्टियों के मूल वोट बैंक में कमी आई थी. (एसपी को पहले से कम यादवों के वोट मिले, वहीं, बीएसपी को कम जाटवों के वोट मिले.)
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द हिंदू-सीएसडीएस पोस्ट-पोल सर्वे से सामने आया कि 64 फीसदी यादवों ने गठबंधन के बीएसपी उम्मीदवारों को वोट डाला, जबकि एसपी उम्मीदवारों के लिए उनके वोट करने का आंकड़ा 57 फीसदी रहा. दूसरी तरफ जाटवों ने दोनों पार्टियों के उम्मीदवारों को लगभग बराबर अनुपात में ही वोट डाले. सर्वे के मुताबिक, एसपी-बीएसपी गठबंधन के उम्मीदवारों को करीब 75 फीसदी जाटवों के वोट मिले.
हालांकि, मंडल पॉलिटिक्स की शुरुआत के बाद इन पार्टियों का उदय होने से लेकर पिछले चुनावों तक ऐसा नहीं था: तब औसतन 80 फीसदी से ज्यादा जाटवों ने बीएसपी के लिए मतदान किया था, और 70 फीसदी से ज्यादा यादवों ने एसपी को वोट डाले थे.
2019 के चुनाव को लेकर, सर्वे से संकेत मिला कि यादव वोटों का एक चौथाई हिस्सा भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की तरफ चला गया; उनमें से कुछ ने शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी को भी पसंद किया. वहीं, बीएसपी के जाटव वोटों की बात करें तो बीजेपी उनमें भी कुछ हद तक सेंध लगाने में कामयाब रही. उनमें से 18 फीसदी ने बीजेपी के लिए मतदान किया.
गठबंधन की मुश्किलें यहीं खत्म नहीं हुईं. गैर-जाटव दलित और गैर-यादव ‘निचली’ ओबीसी जातियां काफी हद तक बीजेपी की तरफ चली गईं. जिन सीटों पर या तो एसपी या बीएसपी के उम्मीदवार थे, वहां गैर-जाटव दलितों के 39 फीसदी हिस्से ने बीएसपी उम्मीदवारों के लिए मतदान किया, जबकि 46 फीसदी ने एसपी उम्मीदवारों के लिए मतदान किया. सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि लगभग आधे गैर-जाटव दलितों ने बीजेपी को वोट दिया. गैर-यादव ओबीसी (‘निचली’ ओबीसी जातियों) में, केवल 17 फीसदी ने गठबंधन के लिए मतदान किया क्योंकि इसमें से एक बड़ा हिस्सा (72-75 फीसदी) बीजेपी की ओर चला गया.
सीट और वोट शेयर को लेकर एसपी और बीएसपी का प्रदर्शन कितना बदला?
2014 के लोकसभा चुनाव में जिस बीएसपी का यूपी में खाता भी नहीं खुला था, उसे 2019 के चुनाव में राज्य की 10 सीटें मिलीं. 2014 में यूपी में बीएसपी का वोट शेयर 19.77 फीसदी रहा था, जबकि 2019 में यह 19.43 रहा. मतलब पिछले चुनाव के मुकाबले 2019 में बीएसपी का वोट शेयर मामूली रूप से घट गया, लेकिन उसे 10 सीटों का फायदा हो गया.
बात एसपी की करें तो उसे यूपी में 2014 के लोकसभा चुनाव की तरह ही 2019 में भी 5 सीटें ही मिलीं. मगर 2019 में उसका वोट शेयर (18.11 फीसदी) पिछले चुनाव के वोट शेयर (22.35 फीसदी) के मुकाबले 4 फीसदी से ज्यादा घट गया. इन आंकड़ों से साफ है कि इस नाकाम गठबंधन में एसपी को ज्यादा निराशा हाथ लगी थी.
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