दिलचस्प है UP में 1 सीट पर सिमटी BSP के बनने की कहानी, जानिए कांशीराम ने कैसे रखी थी नींव

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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) को महज 1 सीट पर ही जीत मिली है. ऐसे में बीएसपी के सियासी भविष्य को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं. इन सवालों के बीच आज बात करते हैं 14 अप्रैल 1984 को अस्तित्व में आई बीएसपी के बनने की कहानी और उसके संस्थापक कांशीराम के सफर की, जिनकी आज जयंती है.

कांशीराम का जन्म 15 मार्च 1934 को पंजाब के रोपड़ जिले के खवासपुर गांव में एक निम्न मध्यम वर्गीय सिख परिवार में हुआ था, जिसने दलित समुदाय से धर्मांतरण किया था. कहा जाता है कि सैनिकों के परिवार से एक युवा सिख के तौर पर, वह पंजाब में स्कूल या कॉलेज में अपनी मूल जाति के बारे में काफी हद तक अनजान थे.

मगर कांशीराम जब डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन (DRDO) की एक फैक्ट्री में लैब असिस्टेंट की नौकरी कर रहे थे, तब वह महाराष्ट्र की अनुसूचित जातियों जैसे महारों और मातंगों के सामाजिक उत्पीड़न और आर्थिक शोषण से हैरान रह गए थे.

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अजय बोस ने अपनी किताब ‘बहनजी’ में लिखा है कि DRDO की फैक्ट्री में एक सहयोगी, डीके खापर्डे ने कांशीराम के एक्टिविज्म के सफर में एक प्रभावशाली भूमिका निभाई. महार बौद्ध खापर्डे एक प्रतिबद्ध अंबेडकरवादी थे. उन्होंने पंजाब के युवा लैब असिस्टेंट को अंबेडकर के लेखन से रूबरू कराया. यह कांशीराम के जीवन में एक अहम मोड़ साबित हुआ. इसके बाद एक समय ऐसा आया जब कांशीराम अपनी नौकरी छोड़कर फुल-टाइम एक्टिविस्ट बन गए.

उन्होंने गांव में अपनी मां को चौबीस पन्नों का एक खत भेजा, जिसमें उन्होंने लिखा कि वह संन्यास ले रहे हैं और अपने परिवार के साथ सभी संबंधों को तोड़ दिया, कांशीराम ने न केवल अविवाहित रहने की कसम खाई, बल्कि उन्होंने यह भी कहा कि वह शादी, जन्मदिन या अंतिम संस्कार जैसे पारिवारिक कामों के लिए अपने गांव के घर कभी नहीं लौटेंगे. कांशीराम ने अपनी मां को लिखा कि उनका बाकी जीवन दलितों के उत्थान के लिए समर्पित होगा.

साठ के दशक के मध्य में वह एक दलित संगठन, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) के सदस्य बन गए, जिसका महाराष्ट्र में मजबूत असर था. मगर बाद में उनका आरपीआई से मोहभंग हो गया. कांशीराम को लगा था कि आरपीआई अंबेडकर के विजन से भटक रही है.

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14 अक्टूबर 1971 को, कांशीराम ने अपना पहला संगठन – ‘अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक कर्मचारी कल्याण संघ’ – बनाया. 1973 में, दिल्ली में तीन दिवसीय सम्मेलन आयोजित करके, कांशीराम और उनके सहयोगियों ने इस संघ को एक राष्ट्रीय संघ में बदल दिया. इसका नाम बदलकर अखिल भारतीय पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ (BAMCEF) कर दिया गया. BAMCEF को 6 दिसंबर 1978 को, अंबेडकर की पुण्यतिथि पर फिर से लॉन्च किया गया.

BAMCEF का मुख्य मकसद बुद्धिजीवी वर्ग में अपने ‘सामाजिक दायित्व’ को पूरा करने के लिए भावना पैदा करना और ज्योतिराव फुले, भीमराव अंबेडकर और पेरियार रामासामी के विचारों का प्रचार-प्रसार करना था.

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सत्तर के दशक के आखिर तक कांशीराम को एहसास हो गया था कि BAMCEF बहुजन समाज के उनके सपने को साकार करने में असमर्थ है. इसके बाद बहुजनों को संगठित करने के लिए कांशीराम ने 1981 में डीएस-4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) की स्थापना की.

जैसा कि नाम से ही जाहिर होता है, डीएस-4 की मुहिम का फोकस शोषण का शिकार दलित वर्ग के ‘उत्थान’ पर था, ऐसे में जाहिर तौर पर यह मुहिम उस ‘अपर कास्ट’ वर्ग के खिलाफ भी थी, जिस पर दलितों के शोषण के आरोप लग रहे थे.

इतिहास के पन्नों पर नजर दौड़ाएं तो इस बात का जिक्र मिलता है कि जमीन पर डीएस-4 के अभियान को तेजी देने में कुछ नारों का खास योगदान रहा, जैसे कि ‘ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-4’

मगर उस दौर का विवादित नारा था- ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’. इस नारे में निशाने पर ‘अपर कास्ट’ थीं, सीधे तौर पर कहें तो बनिया, ब्राह्मण और ठाकुर. कहा जाता है कि पहले डीएस-4 और फिर बाद में बीएसपी के कार्यकर्ता इस नारे का लंबे वक्त तक इस्तेमाल करते रहे, ये नारा तब सिमट गया, जब बीएसपी भी अपर कास्ट को लुभाने की रेस में उतर गई. हालांकि, बीएसपी अब इस नारे से अपने किसी भी तरह के संबंध को खारिज करती है.

इस नारे के अलावा और भी कई नारे थे, जिनका इस्तेमाल बीएसपी की जड़ें जमने के शुरुआती दौर में होता रहा था- ‘वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा’. ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’.

कांशीराम ने डीएस-4 के जरिए सोशल एक्टिविज्म की राह पर चलते हुए बीएसपी की स्थापना की थी और कम से कम पार्टी के शुरुआती दौर तक तो उनका फोकस दलितों पर ही रहा था.

राउंड टेबल इंडिया के मुताबिक, साल 1987 में इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया के एक इंटरव्यू में कांशीराम ने कहा था, ”अपर कास्ट के लोग कहते हैं कि आप हमें क्यों शामिल नहीं करते. मैं कहता हूं कि आप लोग सभी पार्टियों की अगुवाई कर रहे हो. अगर आप हमारी पार्टी में शामिल होते हो, तो आप यहां भी बदलाव को बाधित करोगे. अपर कास्ट के लोग पार्टी में शामिल हो सकते हैं, लेकिन वे इसके नेता नहीं हो सकते. नेतृत्व पिछड़े समुदायों के हाथ में ही रहेगा. मेरा डर यही है कि ये अपर कास्ट के लोग अगर हमारी पार्टी में आएंगे तो बदलाव की प्रकिया बाधित होगी. जब यह डर चला जाएगा, तो वे हमारी पार्टी में शामिल हो सकते हैं.”

मौजूदा बीएसपी चीफ मायावती डीएस-4 बनने से पहले ही कांशीराम की मुहिम से जुड़ चुकी थीं. उनका सियासी कैसे शुरू हुआ था, उसे आप नीचे दी गई स्टोरी में पढ़ सकते हैं.

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