कांशीराम की पुण्यतिथि विशेष: जानें उस ‘संन्यासी’ की कहानी, जिसने बदल दी भारत की सियासत

बृजेश उपाध्याय

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उपेक्षा की चोट से व्यथित इस सन्यासी ने न केवल आरक्षित कोटे से मिली नौकरी छोड़ दी बल्कि आजीवन कुंवारा रहकर गांव-परिवार-रिश्तेदार सभी का त्याग कर दलितों के उत्थान के लिए जीवन समर्पित कर देने का वादा किया. अपनी मां को भेजे 24 पन्नों के खत में उन्होंने कहा कि वे अब सन्यास ले रहे हैं. हम बात कर रहे हैं बसपा के संस्थापक कांशीराम की.

9 अक्टूबर 2006 को कांशीराम (Kanshiram) का दिल्ली में निधन हो गया था. उनकी 16वीं पुण्यतिथि पर बसपा सुप्रीमो मायावती ने एक बार फिर दलित समाज को हुकमरान समाज बनने के लिए कमर कसने को कहा है. कांशीराम की मूर्ति पर माल्यापर्ण कर मायावती ने एक बार फिर कांशीराम के संघर्षों का पन्ना पलटा. इस मौके पर हम बता रहे हैं इस सन्यासी की वो कहानी जिसने भारत की सियासत बदल दी. सियासत में एक ऐसा राजनीति मंच उभरा जहां ऊंची जातियों से साफ कह दिया गया कि वे यहां से चले जाएं. दलित के शोषण से दुखी इस संत ने 90 के दशक में कई ऐसे नारे दिए जिसने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा बदली.

बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम का जन्म रोपड़ जिले के खवासपुर गांव में हुआ था. पहले इनका परिवार दलित था. बाद में समाजिक उपेक्षा के चलते परिवार ने सिख धर्म अपना लिया. सिख धर्म अपनाने से भले ही ऊंची जातियों के बराबर की हैसियत नहीं मिली पर दलितों उपेक्षाओं और दमन का अपमान नहीं सहना पड़ा.

इधर 1956 में ग्रेजुएट होने के बाद कांशीराम को 1958 में पुणे के पास स्थित किरकी के डीआरडीओ (DRDO) में आरक्षण के तहत लैब असिस्टेंट की नौकरी मिल गई. वे नौकरी कर रहे थे तभी महाराष्ट्र की अनुसूचित जातियों जैसे महारों और मातंगों के सामाजिक उत्पीड़न और आर्थिक शोषण से हैरान रह गए थे. इधर डीआरडीओ में भी उनके साथ भेदभाव होने लगा. इन सबसे वे व्यथित हो गए.

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डीके खापर्डे से हुई मुलाकात से जिंदगी को मिला लक्ष्य

कांशीराम की मुलाकात डीके खापर्डे से हुई. अजय बोस ने अपनी किताब ‘बहनजी’ में लिखा है महार बौद्ध खापर्डे एक प्रतिबद्ध अंबेडकरवादी थे. यहीं से कांशीराम ने बाबा सहेब को ठीक ठंग से जाना. इसके बाद कांशीराम ने नौकरी छोड़ दी और फुल-टाइम एक्टिविस्ट बन गए.

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फिर मां को लिखा वो 24 पन्नों का वो खत…

उन्होंने गांव में अपनी मां को चौबीस पन्नों का एक खत भेजा. खत में लिखा कि संन्यास ले रहे हैं और अपने परिवार के साथ सभी संबंधों को तोड़ दिया. कांशीराम ने न केवल अविवाहित रहने की कसम खाई, बल्कि उन्होंने यह भी कहा कि वह शादी, जन्मदिन या अंतिम संस्कार जैसे पारिवारिक कामों के लिए अपने गांव के घर कभी नहीं लौटेंगे. कांशीराम ने अपनी मां को लिखा कि उनका बाकी जीवन दलितों के उत्थान के लिए समर्पित होगा.

शुरूआत RPI से हुई पर जल्द ही मोहभंग हो गया

साठ के दशक के मध्य में वह एक दलित संगठन, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) के सदस्य बन गए, जिसका महाराष्ट्र में मजबूत असर था. मगर बाद में उनका आरपीआई से मोहभंग हो गया. कांशीराम को लगा था कि आरपीआई अंबेडकर के विजन से भटक रही है.

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कांशीराम की नजर युवाओं पर थी, फिर बना बामसेफ

कांशीराम देशभर के दलितों को एकजुट करना चाहते थे. उनकी युवाओं पर खास नजर थी. ऐसे में 14 अक्टूबर 1971 को कांशीराम ने अपना पहला संगठन – ‘अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक कर्मचारी कल्याण संघ’ बनाया. 14 अप्रैल 1973 में दिल्ली में तीन दिवसीय सम्मेलन का आयोजन हुआ. कांशीराम और उनके सहयोगियों ने इस संघ को एक राष्ट्रीय संघ में बदलकर नाम दिया अखिल भारतीय पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ (BAMCEF). BAMCEF को 6 दिसंबर 1978 को, अंबेडकर की पुण्यतिथि पर फिर से लॉन्च किया गया.

BAMCEF का मुख्य मकसद बुद्धिजीवी वर्ग में अपने ‘सामाजिक दायित्व’ को पूरा करने के लिए भावना पैदा करना और ज्योतिराव फुले, भीमराव अंबेडकर और पेरियार रामासामी के विचारों का प्रचार-प्रसार करना था.

बना DS-4, जानिए क्यों पड़ी इसकी जरूरत

सत्तर के दशक के आखिर तक कांशीराम को एहसास हो गया था कि BAMCEF बहुजन समाज के उनके सपने को साकार करने में असमर्थ है. इसके बाद बहुजनों को संगठित करने के लिए 1981 में डीएस-4 (दलित-D शोषित-S समाज-S संघर्ष-S समिति-S) की स्थापना की.

अब तक अपर कास्ट के खिलाफ कांशीराम खुलकर आ चुके थे. मंचों से अपरकास्ट को साफ कहत थे- अगर श्रोताओं में ऊंची जाति के लोग हों तो अपने बचाव के लिए वे वहां से चले जाएं. राउंड टेबल इंडिया के मुताबिक, साल 1987 में इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया के एक इंटरव्यू में कांशीराम ने कहा था, ‘अपर कास्ट के लोग कहते हैं कि आप हमें क्यों शामिल नहीं करते. मैं कहता हूं कि आप लोग सभी पार्टियों की अगुवाई कर रहे हो. अगर आप हमारी पार्टी में शामिल होते हो, तो आप यहां भी बदलाव को बाधित करोगे. अपर कास्ट के लोग पार्टी में शामिल हो सकते हैं, लेकिन वे इसके नेता नहीं हो सकते. नेतृत्व पिछड़े समुदायों के हाथ में ही रहेगा. मेरा डर यही है कि ये अपर कास्ट के लोग अगर हमारी पार्टी में आएंगे तो बदलाव की प्रकिया बाधित होगी. जब यह डर चला जाएगा, तो वे हमारी पार्टी में शामिल हो सकते हैं.’

अपर कास्ट के खिलाफ जमकर गूंजे ये नारे

डीएस-4 बनने के बाद नारे भी गूंजे- ‘ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-4’. बात यहीं खत्म नहीं हो गई. साल 1983 में कांशीराम ने जब दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में घूमकर दलितों के दयनीय हालात देखे तो और व्यथित हो गए. इसके बाद वो नारा गूंजा जो बहुत विवादों में रहा- ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’. ये नाजरा एक समय तक खूब चला पर सियासत में एक चीज हमेशा नहीं रहती. बसपा को लगा कि ऊंची जातियों से तौबा करके केवल सियासत में नहीं रहा जा सकता. ऐसे में बसपा अपरकास्ट को लुभाने के लिए मैदान में उतरी. जब-जब इन नारों का जिक्र हुआ तो पार्टी ने इन नारों से खुद के संबंधों को खारिज का नकार दिया.

ऐसे हुआ बसपा का जन्म…

वक्त आया तब कांशीराम ने 1984 में बसपा (Bahujan samaj Party) की नींव रखी. डीएस-4 बनने से पहले ही मायावती कांशीराम की मुहिम से जुड़ चुकी थीं. कांशीराम की बेहद खास रहीं मायावती का सियासी कद सही मायने में तब बढ़ा था, जब 1993 में समाजवादी पार्टी (एसपी) और बीएसपी ने गठबंधन के तहत यूपी विधानसभा चुनाव लड़ा और जीत हासिल कर सरकार बनाई. इस सरकार में एसपी नेता मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने थे, लेकिन मायावती का जिस तरह से सरकार में दखल था, उसके आधार पर उन्हें ‘सुपर चीफ मिनिस्टर’ तक कहा जाने लगा. इस सरकार के दौरान मायावती ने दलितों के हित में आवाज भी उठाई.

यूपी में पहली बार दलित सीएम बनीं मायावती

1995 में बीएसपी और एसपी का गठजोड़ टूटने के बाद जब मुलायम सिंह की अगुवाई वाली सरकार गिरी तो मायावती भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का बाहरी समर्थन हासिल कर मायावती उत्तर प्रदेश की पहली दलित मुख्यमंत्री बनीं. फिर जब 1996 के विधानसभा चुनाव हुए तो कोई पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी, ऐसे में कुछ वक्त तक राज्य में राष्ट्रपति शासन रहा. अप्रैल 1997 में, 174 विधायकों वाली बीजेपी का 67 सीट जीतने वाली बीएसपी के साथ एक समझौता हुआ. इस समझौते के तहत 6-6 महीने के अंतराल पर दोनों पार्टियों से एक-एक मुख्यमंत्री बनाने पर सहमति बनी. इसके तहत मायावती पहले 6 महीने मुख्यमंत्री रहीं. मगर सियासी उठापटक के बीच बीएसपी का बीजेपी से समझौता टूट गया.

मायावती तीसरी बार सीएम बनीं और फिर…

इसके बाद जब 2002 के विधानसभा चुनाव के बाद भी जब कोई पार्टी अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी, तो मार्च से लेकर मई 2002 तक राष्ट्रपति शासन रहने के बाद बीजेपी ने बीएसपी को समर्थन दिया और मायावती तीसरी बार राज्य की मुख्यमंत्री बनीं. मगर इस सरकार के सामने लगातार चुनौतियां आती रहीं, ऐसे में मायावती ने अगस्त 2003 में इस्तीफा दे दिया.

सर्वण विरोधी छवि पार्टी के लिए बनी समस्या तो…

ऐसे में 2007 के विधानसभा चुनाव से पहले शायद मायावती को यह बात समझ में आ गई कि दलित केंद्रित राजनीति से उन्हें गठबंधन केंद्रित सियासत पर ही निर्भर रहना पड़ेगा. इस बीच पार्टी ने उस चुनाव में अपनी ‘सवर्ण विरोधी’ छवि से पूरी तरह बाहर निकलने की ठानी. बीएसपी ने ब्राह्मण-दलित गठजोड़ पर जोर देते हुए सोशल इंजीनियरिंग का एक नया फॉर्मूला अपनाया. इस चुनाव में पार्टी ने 86 ब्राह्मण उम्मीदवार उतारे, जिनमें से 40 से ज्यादा की जीत हुई. कुल मिलाकर बीएसपी के खाते में 403 सदस्यीय विधानसभा की 206 सीटें आईं.

2012 के बाद से नहीं हुई वापसी

2007 में सरकार बनाने के बाद फिर 2012 में चुनाव हुए. इसबार बसपा हारी और यूपी की सत्ता से बाहर होने के बाद अब तक वापसी नहीं कर पाई है. इस बीच 2019 के लोकसभा चुनाव में वो एसपी के साथ गठबंधन करके भी देख चुकी है. मगर 2007 के बाद बीएसपी की कोई भी सियासी चाल उसके लिए कारगर नहीं रही.

पार्टी को फिर आई कांशीराम की याद

इधर कांशीराम की पुण्यतिथि पर बहुजन समाज को हुकमरान समाज बनाने के अभियान पर जोर देने की बात कर मायावती ने साफ कर दिया है कि एक बार फिर वो उसी मुहिम के साथ वापसी करना चाह रही हैं जिसे 2003 में कहीं पीछे छोड़ दिया था.

कांशीराम की पुण्यतिथि पर मायावती ने बहुजन समाज को ‘हुकमरान’ बनने के लिए जुटने को कहा

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