यूपी चुनाव 2022: सबको चाहिए ब्राह्मण वोट, जानें किस विनिंग फॉर्म्युला की तलाश में हैं दल?

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बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) चीफ मायावती ने 7 सितंबर को लखनऊ में पार्टी के प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन को संबोधित कर एक तरह से अपने चुनावी अभियान की शुरुआत की. मायावती ने कहा कि अगर ब्राह्मण वोटर्स गुमराह नहीं हुए, तो 2007 की तरह बीएसपी को पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने से कोई ताकत नहीं रोक सकती. तो आखिर क्या यूपी में ब्राह्मण वोट इतनी सियासी ताकत रखता है कि वह किसी खास पार्टी की सरकार बनवा दे? यह सवाल इसलिए भी ज्यादा पूछा जा रहा है क्योंकि सिर्फ बीएसपी नहीं, बल्कि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस भी ब्राह्मण वोटर्स पर फोकस कर अपने राजनीतिक अभियान को डिजाइन कर रही हैं. विपक्ष के आरोप हैं कि यूपी में ब्राह्मणों पर अत्याचार हो रहे हैं इसलिए ये तबका सीएम योगी और बीजेपी से नाराज है. वहीं बीजेपी कह रही है कि विपक्ष हमेशा की तरह जातियों की राजनीति कर रहा है, जबकि उसके एजेंडे में सबका साथ-सबका विकास है और ब्राह्मण भी सरकार से खुश हैं. आइए समझते हैं यूपी में ब्राह्मण सियासत के इतिहास और वर्तमान में इस वोट बैंक को अपनी तरफ करने की पूरी सियासी कवायद को.

एक अनुमान के मुताबिक यूपी में ब्राह्मण आबादी 11 से 13 फीसदी के बीच है. राजनीतिक दलों का ब्राह्मण सम्मेलन करना हो या परशुराम की तस्वीरों, मूर्तियों संग तस्वीरें सामने आना, सबका लक्ष्य इस बड़े मतदाता समूह को आकर्षित करना ही है. एक वक्त रहा जब यूपी की सियासत की कमान ब्राह्मण नेताओं के हाथ में ही रही. लेकिन यह ताकत 1989 के बाद अचानक से खत्म हो गई और ब्राह्मणों के पास यूपी में अंतिम सीएम के रूप में नारायण दत्त तिवारी के नाम की कहानी रह गई. पर राजनीति में सियासी समीकरण हमेशा बदलते रहे हैं. बीएसपी, एसपी और कांग्रेस जैसे विपक्षी दल 2022 के चुनावों को देखते हुए अब इस जाति समूह को अपने पाल में खींचने की कवायद में जुटे हैं.

1947 के बाद रहे 6 ब्राह्मण सीएम, 3 दशकों में सियासी नेतृत्व की ताकत पड़ी कमजोर

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यूपी में ब्राह्मण नेतृत्व एक समय सबसे बड़ी सियासी ताकत हुआ करते थे. पिछले 3 दशकों की राजनीति में ब्राह्मण नेतृत्व प्रदेश के शीर्ष नेतृत्व से वंचित होकर सिर्फ सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी के रूप में नजर आ रहा है. 1947 के बाद यूपी को 6 कद्दावर ब्राह्मण मुख्यमंत्री मिले. यूपी के पहले सीएम गोविंद बल्लभ पंत (1952-1954) ब्राह्मण ही थे. उनके बाद सुचेता कृपलानी (1963-1967), कमलापति त्रिपाठी (1971-1973), हेमवती नंदन बहुगुणा (1973-1975), श्रीपति मिश्र (1982-1984) और नारायण दत्त तिवारी (1976-1977, 1984-1985, 1988-1989) भी यूपी के सीएम बने. 1990 के दशक में मंडल बनाम कमंडल की राजनीति प्रभावी हुई और यूपी का ब्राह्मण नेतृत्व अपनी सियासी ताकत को खो बैठा.

पुराने विनिंग फॉर्म्युले को दोहराने के लिए बेकरार हैं दल, पर ऊंट किस करवट बैठेगा? यूपी में गैंगस्टर विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद अचानक से एक पुराना नैरेटिव नए रूप में सामने आता दिखा. ये नैरेटिव था यूपी की सियासी जंग में ब्राह्मण बनाम राजपूत प्रतिद्वंद्विता का. यूपी में विपक्षी दलों ने आपराधिक वारदातों, पुलिसिया एक्शन, सरकारी कार्रवाई, ट्रांसफर-पोस्टिंग में जाति के एंगल तलाशने शुरू कर दिए. विकास दुबे प्रकरण ने इसे फ्यूल देने का काम किया. बीएसपी के सतीश मिश्रा ने पार्टी के प्रबुद्ध सम्मेलनों में कई मंचों से विकास दुबे के सहयोगी अमर दुबे के एनकाउंटर के बाद नाबालिग कारागार में बंद उनकी पत्नी खुशी दुबे का मामला उठाया. यूपी में नई राजनीतिक संभावनाएं तलाश रही आम आदमी पार्टी (AAP) के नेता संजय सिंह ने तो यहां तक कह दिया कि सूबे में सैकड़ों ब्राह्मणों की हत्या हुई. उन्होंने आरोप लगाया कि कई ब्राह्मणों के फर्जी एनकाउंटर हुए. इसी तरह परशुराम की तरफ एसपी के झुकाव और कांग्रेस की ब्राह्मण चेतना परिषद जैसी कवायदों का लक्ष्य एक ही नजर आ रहा है कि ब्राह्मणों को कैसे लुभाया जाए. हालांकि ये बात दिगर है कि कांग्रेस की ब्राह्मण राजनीति को ब्राह्मण चेतना परिषद के मंच से लीड करने वाले जितिन प्रसाद खुद अब बीजेपी में शामिल हो चुके हैं.

2007 में मायावती की सोशल इंजीनियरिंग से फोकस में आए ब्राह्मण वोटर्स

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मायावती ने 2007 के विधानसभा चुनावों में बहुजन के साथ ब्राह्मण को जोड़कर सत्ता तक पहुंचने का एक विनिंग फॉर्म्युला तलाशा था. तबसे यह माना जाने लगा कि यूपी में ब्राह्मणों ने जिस राजनीतिक पार्टी का साथ दिया, सत्ता उसके पाले में जाती दिखी है. इसलिए सभी दल इस विनिंग फॉर्म्युले को दोहराने के लिए बेकरार दिख रहे हैं. पर ब्राह्मण वोटर्स के अपने खेमें में होने का दावा करने वाली बीजेपी का मानना है कि यह प्रभावशाली जाति समूह आज भी उनके साथ है.

5 सितंबर को यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने हिंदुस्तान पूर्वांचल सम्मान समारोह में पहुंचे, तो उन्हें एक बार फिर इस मुद्दे से दो चार होना पड़ा. सीएम योगी से पूछा गया- आपके बारे में कहा जाता है कि ब्राह्मण आपसे खफा हैं, ऐसा है क्या? उन्होंने बड़ी हाजिरजवाबी से इसका जवाब दिया, ‘(ब्राह्मण) मुझसे खफा होते तो पंडित छन्नूलाल जी यहां क्यों बैठते?’ दरअसल इस कार्यक्रम में सीएम योगी ने 50 शख्सियतों का सम्मान किया था. इस दौरान जाने-माने शास्त्रीय गायक पंडित छन्नूलाल मिश्र भी मौजूद थे, जिनका जिक्र सीएम योगी ने किया. सीएम योगी आदित्यनाथ ने आगे कहा कि प्रबुद्ध समाज हमारे इन कामों से संतुष्ट है कि हम लोगों ने अयोध्या को, मथुरा को, काशी आदि को उनकी सही पहचान दिलाने का काम किया.

आखिर किस करवट बैठेगा प्रबुद्ध समाज? अब सवाल यह है कि विपक्षी दलों को ब्राह्मणों को लुभाने की कवायद कितनी सफलत होगी. यूपी के चुनावी गणित की बात करें तो ब्राह्मणों के मामले में बीजेपी का पलड़ा पिछले तीन बड़े चुनावों में भारी ही नजर आया है. सबसे पहले बात करते हैं लोकसभा चुनाव 2014 की. यह चुनाव 1990 के बाद की गठबंधन की राजनीति को बदलने वाला चुनाव साबित हुआ था. बीजेपी ने अकेले दम पर केंद्र में बहुमत का आंकड़ा छुआ था और इसमें सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी यूपी से मिली जीत ने. लोकनीति की स्टडी के मुताबिक 2014 में ब्राह्मणों के 72 फीसदी वोट बीजेपी को गए. कांग्रेस को 11 फीसदी और बीएसपी व एसपी को 5-5 फीसदी वोट मिले. इस चुनाव में अकेले बीजेपी को यूपी में 71 सीटें मिलीं.

अब बात करते हैं 2017 के विधानसभा चुनावों की. बीजेपी ने लोकसभा चुनावों से आगे बढ़ते हुए ही प्रदर्शन किया. ब्राह्मणों के 80 फीसदी वोट बीजेपी को मिले. बीजेपी को 312 सीटें मिलीं, जो पार्टी के लिए अभूतपूर्व थीं. 2019 के लोकसभा चुनावों में तो बीजेपी दो कदम और आगे निकल गई. सीएसडीएस-लोकनीति के पोस्ट पोल सर्वे के मुताबिक बीजेपी+ को ब्राह्मणों के 82 फीसदी वोट मिले. ऐसा तब हुआ जब बीएसपी और एसपी एक साथ आई थीं और बीजेपी के सामने महागठबंधन की चुनौती थी. महागठबंधन को ब्राह्मण समुदाय के सिर्फ 6 फीसदी वोट मिले. इतने ही वोट कांग्रेस को भी मिले.

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सबको खारिज कर बीजेपी को चुनने वाले ब्राह्मण क्या 2022 में मन बदलेंगे?

ये वही सवाल है, जिसके इर्द-गिर्द सारी राजनीतिक पार्टियां मशक्कत कर रही हैं. विकास दुबे एनकाउंटर जैसी घटनाओं और योगी आदिचत्यनाथ सरकार पर ब्राह्मणों की अनदेखी का आरोप लगा विपक्षी दल इस कोर वोटर ग्रुप को अपनी ओर करने में लगा हुआ है. यूपी के पिछले तीन चुनावों का गणित बताता है कि ब्राह्मण समुदाय ने सबको छोड़कर एकतरफा बीजेपी का साथ दिया और 2014 से लेकर 2019 तक इस जुगलबंदी में मजबूती ही देखने को मिली है. ऐसे में विपक्ष द्वारा ब्राह्मण वोटर्स को अपनी ओर खींचने की कवायद का रास्ता आसान नजर नहीं आता.

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