अयोध्या कांड की कहानी, जिसे लेकर विरोधियों ने सपा संरक्षक को नाम दिया था ‘मुल्ला मुलायम’

यूपी तक

• 04:19 AM • 10 Oct 2022

समाजवादी पार्टी के संस्थापक और इसके संरक्षक मुलायम सिंह यादव चिर निद्रा में विलीन हो चुके हैं. लंबे समय से गुरुग्राम मेदांता में भर्ती मुलायम…

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समाजवादी पार्टी के संस्थापक और इसके संरक्षक मुलायम सिंह यादव चिर निद्रा में विलीन हो चुके हैं. लंबे समय से गुरुग्राम मेदांता में भर्ती मुलायम सिंह यादव ने 82 साल की उम्र में सोमवार सुबह आखिरी सांस ली. मुलायम के लिए दुआ-प्रार्थना में जुटे लाखों लोगों की आस तब टूट गई जब मेदांता से नेताजी के नहीं रहने की मनहूस खबर सामने आई. मुलायम सिंह यादव 52 साल का सक्रिय राजनीतिक जीवन जीकर गए. 8 बार विधायक, 7 बार सांसद एक बार एमएलसी रहे मुलायम सिंह तीन-तीन बार यूपी जैसे बढ़े सूबे के मुख्यमंत्री बने और एक बार देश के रक्षा मंत्री का भी पद संभाला.

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मुलायम सिंह को उनके कई राजनीतिक और प्रशासनिक फैसलों के लिए हमेशा याद किया जाता रहा. कुछ फैसले ऐसे भी रहे, जिन्होंने देश की राजनीति को ही बदल कर रख दिया. उन्होंने ऐसा ही एक फैसला लिया था अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन के दौरान. वह फैसला जिसकी वजह से मुलायम हमेशा अपने विरोधी, खासकर बीजेपी के निशाने पर रहे. वह फैसला जिसके लिए उनके विरोधियों ने उन्हें ‘मुल्ला मुलायम’ और अब्बा जान कहकर भी पुकारा.

आइए आपको बताते हैं उस अयोध्या कांड की पूरी कहानी, जिसे लेकर अफसोस तो मुलायम सिंह को भी रहा, लेकिन अंत-अंत तक वह यह कहने में भी गुरेज नहीं करते रहे कि तब उनके सामने सवाल राष्ट्रीय एकता का था.

अयोध्या कांड: चलिए वक्त के पहिए को 3 दशक पीछे लेकर चलते हैं

बात उस वक्त की है जब केंद्र में कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखने के लिए बीजेपी ने वीपी सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार को बाहर से समर्थन दिया. मगर सरकार की ओर से मंडल कमीशन रिपोर्ट को लागू किए जाने के फैसले ने पार्टी को असमंजस में डाल दिया. कुछ नेताओं की राय में यह हिंदू समाज को विभाजित करने का एक षड्यंत्र था. दूसरे कई नेताओं की राय थी कि पिछड़े वर्गों के लिए सकारात्मक कदमों की शुरुआत उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक जरूरी कदम थी.

ऐसे में बीजेपी और आरएसएस की शाखाओं में इस पर बहसें हुईं कि मंडल आयोग की रिपोर्ट का समर्थन किया जाए या नहीं. मगर इस मुद्दे पर एक खास रुख अपनाने की बजाए बीजेपी ने राजनीतिक बहस को दूसरी तरफ मोड़ने की कोशिश की. पार्टी ने धर्म का मुद्दा चुना और अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के लिए अभियान शुरू करने का फैसला किया. इसी के तहत गुजरात के प्राचीन शहर सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक एक रथयात्रा निकालने का ऐलान किया गया. इस अभियान का नेतृत्व बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी कर रहे थे.

25 सितंबर, 1990 से शुरू होकर पांच हफ्ते बाद आडवाणी की रथयात्रा की योजना अयोध्या पहुंचने की थी. इसी क्रम में उनका रथ आठ राज्यों से होकर करीब 6000 मील की दूरी तय करता. विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) से जुड़े लोग शहर-दर-शहर इसके स्वागत में जुट रहे थे.

आडवाणी की यह रथयात्रा वीपी सिंह सरकार के लिए एक बड़ा सिरदर्द साबित हुई क्योंकि इस अभियान ने धार्मिक भावनाओं को उकसाने का खतरा पेश कर दिया, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था. मगर सियासी समीकरणों को देखते हुए इसे रोकना भी सरकार के लिए आसान नहीं था.

आखिरकार, रथयात्रा दिल्ली पहुंच गई, जहां आडवाणी कई दिन तक रुके रहे और सरकार को उन्हें गिरफ्तार करने की चुनौती देते रहे, लेकिन सरकार ने उस चुनौती को नजरअंदाज करना उचित समझा और यात्रा फिर शुरू हो गई. हालांकि अपने अंतिम मुकाम पर पहुंचने से एक हफ्ते पहले जब रथयात्रा बिहार से गुजर रही थी तो वहां इसे रोक दिया गया. बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के आदेश पर आडवाणी को एहतियातन हिरासत में भी ले लिया गया.

जब आडवाणी बिहार सरकार की एक अतिथिशाला में बंद थे, तब हजारों की संख्या में कारसेवक पूरे देशभर से अयोध्या की तरफ कूच कर रहे थे. इसी बीच, अपने बिहारी समकक्ष की तरह ही बीजेपी के कट्टर विरोधी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने इस सिलसिले में राज्य के बाहर से आने वाले लोगों की गिरफ्तारी का आदेश दे दिया. रामचंद्र गुहा की किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ के मुताबिक, करीब 150000 कारसेवकों को हिरासत में ले लिया गया लेकिन उससे आधे के करीब अयोध्या पहुंचने में कामयाब हो गए. अयोध्या में सुरक्षाबलों के बीस हजार जवान पहले से ही तैनात थे, जिनमें कुछ नियमित पुलिस के जवान थे जबकि दूसरे बीएसएफ जैसे अर्ध-सैनिक बलों से थे.

30 अक्टूबर 1990: वह दिन जब बिगड़े हालात

30 अक्टूबर की सुबह कारसेवकों की एक भारी भीड़ सरयू नदी के पुल पर देखी गई, जो अयोध्या के पुराने शहर को नए शहर से अलग करती थी. कारसेवकों ने पुलिस का घेरा तोड़ डाला और मस्जिद की ओर तेजी से बढ़ चले. वहां उनका सामना बीएसएफ के दस्तों से हुआ. कुछ कारसेवक उनको भी चकमा देने में कामयाब हो गए और बाबरी मस्जिद तक पहुंच गए. उस भीड़ के हमले को रोकने के लिए सुरक्षाबलों ने पहले आंसू गैस और फिर बाद में गोलियों का इस्तेमाल किया. कारसेवकों को तंग गलियों में और मंदिर के परिसरों में खदेड़ा गया. उनमें से कुछ ने लाठियों और पत्थरों से मुकाबला किया. उत्तेजित स्थानीय लोगों ने भी कारसेवकों का समर्थन किया और उन्होंने घर की छतों से पुलिस पर देसी हथियारों और पत्थरों से हमला किया. सुरक्षाबलों और कारसेवकों के बीच पूरे तीन दिनों तक लड़ाई चलती रही.

जब मुलायम सिंह ने कहा था- देश की एकता के लिए पुलिस को गोलियां चलानी पड़ीं

साल 2013 में आज तक को दिए एक इंटरव्यू में मुलायम सिंह ने कहा था कि देश की एकता के लिए उनकी सरकार की पुलिस को गोली चलानी पड़ी थीं. तब मुलायम सिंह ने कहा था, ‘मैंने साफ कहा था कि ये मंदिर-मस्जिद का सवाल नहीं है, देश की एकता का सवाल है. देश की एकता के लिए हमारी सरकार की पुलिस को गोली चलानी पड़ी. मुझे अफसोस है कि लोगों की जानें गईं.’ न्यूज एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, 1990 की घटना को लेकर साल 2017 में मुलायम ने अपने 79वें जन्मदिन के मौके पर कहा, ”देश की एकता के लिए और भी मारना पड़ता तो सुरक्षा बल मारते.”

बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए अपने कदम को सही ठहराते हुए उन्होंने कहा, ”बहुत से मुसलमानों ने यह कहते हुए हथियार उठा लिए थे कि अगर उनकी आस्था की जगह खत्म हो गई, तो देश में क्या रहेगा?” मुलायम ने बताया कि पूर्व प्रधानमंत्री और बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने एक चर्चा के दौरान कहा था कि अयोध्या में 56 लोग मारे गए. उन्होंने आगे कहा, ”मेरी उनसे बहस हुई थी. वास्तव में, 28 मारे गए थे. मुझे छह महीने बाद आंकड़े का पता चला और मैंने अपने तरीके से उनकी मदद की.”

आज मुलायम सिंह यादव हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन राजनीति में लिए गए फैसलों के असर की मियाद अक्सर उम्र से भी लंबी होती देखी गई है. अयोध्या का फैसला भी कुछ ऐसा था. अयोध्या में हुए गोलीकांड के ठीक बाद यूपी में मुलायम सिंह की सरकार गिर गई थी. हालांकि बाद में अयोध्या में 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद भी गिराई गई. बीजेपी को राम मंदिर आंदोलन का बड़ा सियासी फायदा मिला. राम मंदिर और बाबरी मस्जिद का मामला लंबे समय तक सड़क से लेकर संसद तक और फिर सुप्रीम कोर्ट में लड़ा गया.

आखिरकार 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने विवादित जमीन को ट्रस्ट को सौंपने का फैसला सुनाया. बाद में भारत सरकार ने फरवरी 2020 में श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट का गठन किया और फिलहाल अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण जोर-शोर से चल रहा है. इस बीच काशी का ज्ञानवापी मस्जिद-शृंगार गौरी विवाद और मथुरा का श्रीकृष्ण जन्मभूमि-शाही मस्जिद विवाद भी कोर्ट की चौखट पर पहुंचा हुआ है.

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