कैसे हुआ था समाजवादी पार्टी का जन्म, क्यों उसके लिए UP का 2022 चुनाव है ‘अग्निपरीक्षा’

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उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में कई राजनीतिक दलों के सामने खुद को मजबूत साबित करने की चुनौती है. इसकी वजह यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव से लेकर अब तक चुनावी प्रदर्शन के मोर्चे पर ये दल राज्य में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के सामने कमजोर दिखे हैं. इन्हीं दलों में समाजवादी पार्टी (एसपी) भी शामिल है, जो इन दिनों बीजेपी पर जमकर हमलावर दिख रही है और अलग-अलग मुद्दों पर उसे घेरते हुए कह रही है- ‘नहीं चाहिए भाजपा’.

यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के लिए एसपी ने अपने चुनाव चिह्न साइकिल को आधार बनाते हुए नारा दिया है- ”बाइस में बाइसिकल”.

आज एसपी की कहानी पर नजर दौड़ाते हुए यह समझने की कोशिश करते हैं कि 2022 के चुनाव में पार्टी कहां खड़ी दिख रही है और क्यों उसके लिए यह चुनाव एक ‘अग्निपरीक्षा’ है.

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‘समाजवादी मुहिम’ से गुजरते हुए कैसी पड़ी थी एसपी की नींव?

समाजवादी पार्टी की स्थापना 4 अक्टूबर 1992 को मुलायम सिंह यादव ने की थी. ऐसे में पार्टी की नींव पड़ने का इतिहास भी काफी हद तक मुलायम के राजनीतिक सफर के इर्द-गिर्द ही है. उत्तर प्रदेश के इटावा में जन्मे मुलायम अपनी युवा अवस्था में राम मनोहर लोहिया के समाजवादी आंदोलन से काफी प्रभावित हुए थे.

कुश्ती के शौकीन और अध्यापक रहे मुलायम की चुनावी अखाड़े में एंट्री कराने में उनके राजनीतिक गुरु नत्थू सिंह का बड़ा हाथ माना जाता है.

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संजय लाठर ने अपनी किताब ‘समाजवाद का सारथी’ में लिखा है कि नत्थू सिंह ने 1967 के विधानसभा चुनाव में मुलायम को जसवंतनगर सीट से उतारने पर जोर दिया था. उस दौरान नत्थू सिंह ने लोहिया से कहा था कि वे उनकी पार्टी को एक नौजवान और जुझारू नेता दे रहे हैं. नत्थू सिंह के जोर देने के बाद मुलायम को उस साल जसवंतनगर सीट से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का उम्मीदवार बनाया गया. मुलायम ने अपने राजनीतिक गुरु की उम्मीदों पर खरा उतरते हुए इस चुनाव में जीत हासिल की और वह 28 साल की उम्र में राज्य के सबसे कम उम्र के विधायक बने.

हालांकि, मुलायम जिस ‘समाजवादी मुहिम’ से जुड़े थे, उसे तब एक बड़ा झटका लगा, जब 12 नवंबर 1967 को लोहिया का निधन हो गया. लोहिया के निधन के बाद संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी कमजोर पड़ने लगी. 1969 के विधानसभा चुनाव में मुलायम भी हार गए. इसी बीच, चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय लोकदल मजबूत होने लगी थी.

ऐसे में मुलायम भी इसी पार्टी में शामिल हो गए. इसके बाद समय के साथ दल-बदल करते हुए मुलायम का सफर जनता दल तक पहुंच गया. साल 1989 में जब जनता दल उत्तर प्रदेश की सत्ता में आया तो मुलायम को मुख्यमंत्री बनाया गया. बीजेपी इस सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी, जिसने कुछ ही वक्त में अपना समर्थन वापस भी ले लिया. देशभर में चल रही सियासी उठापटक के बीच जनता दल टूटने लगा. इस बीच, भले ही बतौर मुख्यमंत्री मुलायम का कार्यकाल छोटा (1989-1991) रहा, लेकिन वह राज्य में उस वक्त मजबूत कांग्रेस के खिलाफ प्रमुख चेहरा बन चुके थे. बीजेपी जब राम जन्मभूमि मंदिर की मुहिम पर जोर रही थे, उस दौरान मुलायम मुस्लिमों के प्रति नरम रुख नेता के तौर पर उभरे. आखिरकार मुलायम ने 1992 में खुद की पार्टी (एसपी) बना ली.

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कब-कब यूपी की सत्ता में रही एसपी?

1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जब साल 1993 में यूपी विधानसभा चुनाव हुए तो एसपी ने बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के साथ रणनीतिक साझेदारी कर ली. एसपी ने 256 सीटों पर चुनाव लड़कर 109 सीटें जीतीं, वहीं 164 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली बीएसपी के खाते में 67 सीटें गईं. चुनाव के नतीजों के बाद इस गठबंधन की सरकार बनी और मुलायम एक बार फिर राज्य के मुख्यमंत्री बने. हालांकि, 1995 में बीएसपी इस गठबंधन से बाहर हो गई और मुलायम की अगुवाई वाली सरकार गिर गई.

इसके बाद साल 2003 में एक बार फिर यूपी में एसपी की सरकार बनी और मुलायम सिंह यादव तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने. इस सरकार पर कानून व्यवस्था को लेकर काफी सवाल उठे. 2007 के विधानसभा चुनाव में दलित-ब्राह्मण समीकरण को प्रमुखता देने वाली बीएसपी को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ और एसपी फिर से सत्ता से बाहर हो गई.

साल 2009 में मुलायम के बेटे अखिलेश यादव को समाजवादी पार्टी का उत्तर प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया. यह पद संभालने के बाद ही अखिलेश ने तत्कालीन मायावती सरकार के खिलाफ जंग तेज कर दी. उन्होंने संगठन को मजबूत बनाने की दिशा में भी काम किया.

2012 के विधानसभा चुनाव से पहले अखिलेश ने पार्टी में नई जान फूंकने के लिए कई साइकिल यात्राएं कीं और ‘क्रांति रथ’ से भी एक बड़ी यात्रा शुरू की. अखिलेश की कोशिशें रंग लेकर आईं और समाजवादी पार्टी ने 403 सदस्यीय उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में 224 सीटें जीतकर पहली बार अपने दम पर बहुमत हासिल किया. इस तरह अखिलेश यादव 38 साल की उम्र में प्रदेश के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने.

2014 से बढ़ती गईं एसपी की मुश्किलें

2014 के लोकसभा चुनाव में एसपी के खाते में यूपी की 80 सीटों में से महज 5 सीट ही आईं. इसके बाद पार्टी को दूसरा बड़ा झटका तब लगा, जब 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन में उतरी समाजवादी पार्टी को बड़ी हार का सामना करना पड़ा. इस चुनाव में एसपी 311 विधानसभा सीटों पर लड़ी थी, जिनमें से उसे महज 47 पर ही जीत हासिल हुई.

एसपी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में इन झटकों से उबरने के लिए एक बड़ा कदम उठाया. बीजेपी के विजय रथ को रोकने के लिए उसने 1995 से अपनी कड़ी प्रतिद्वंदी रही बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के साथ गठबंधन किया. मगर एसपी की यह रणनीति भी काम नहीं आई और इस चुनाव में भी उसके खाते में 5 सीटें ही आईं.

कुछ वक्त पहले हुए जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख चुनाव में भी एसपी का प्रदर्शन बीजेपी के सामने कमजोर रहा है. हालांकि, एसपी ने बीजेपी पर गुंडागर्दी के दम पर ये चुनाव जीतने का आरोप लगाया है.

इस बीच, हाल ही में ABP Cvoter प्री-पोल सर्वे के आंकड़े भी सामने आए. इनके मुताबिक, यूपी के विपक्षी दलों में सबसे मजबूत एसपी दिख रही है, मगर सर्वे में उसके लिए विधानसभा की 109 से 117 सीटें मिलने का अनुमान जताया गया. बता दें कि उत्तर प्रदेश की विधानसभा में कुल 403 सीटें हैं, ऐसे में सरकार बनाने के लिए कम से कम 202 सीटों की जरूरत होगी.

हालांकि, सर्वे रिपोर्ट को अभी महज एक चुनावी अनुमान के तौर पर देखा जा सकता है, जिसके चुनावी नतीजे में बदलने के बारे में फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता. मगर आगामी यूपी विधानसभा चुनाव से पहले जो तस्वीर दिख रही है, वो यही बयां कर रही है कि एसपी के सामने यूपी की राजनीति में अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने की बड़ी चुनौती है.

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