IIT वाला यूपी का नेता, जो बना राजनीति का दूसरा ‘मौसम वैज्ञानिक’

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अक्सर राजनीति को लेकर आरोप लगते रहते हैं कि यहां पढ़े-लिखे लोगों की कमी है। पर भारतीय राजनीति पर ये आरोप पूरी तरह से फिट नहीं बैठता। भारतीय राजनीति में हमेशा काफी उच्च स्तर की शिक्षा हासिल करने वाले नेताओं की अच्छी-खासी तादाद रही है। चाहे आजाद भारत की शुरुआती राजनीति के समय के पंडित नेहरू और डॉ. अंबेडकर जैसे नेता हों या आज के डॉक्टर मनमोहन सिंह, कपिल सिब्बल, अरविंद केजरीवाल, सुब्रमण्यन स्वामी जैसे नेता, पढ़ाई में भी इन्होंने टॉप मुकाम हासिल किया।

आज हम आपको एक ऐसे ही राजनेता का किस्सा बता रहे हैं, जो आज हमारे बीच तो नहीं है। लेकिन जिसने IIT की पढ़ाई और विदेश में नौकरी के बाद सियासत में ऐसी एंट्री की और उन्हें राजनीति का मौसम वैज्ञानिक कहा जाने लगा।

यह कहानी अजीत सिंह की है और मौसम वैज्ञानिक से कंफ्यूज होने की जरूरत नहीं है। भारतीय राजनीति में अजीत सिंह की पहचान दूसरे मौसम वैज्ञानिक की रही है, पहले नंबर पर रामविलास पासवान हैं और आज वह भी हमारे बीच मौजूद नहीं हैं।

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12 फरवरी, 1939 को अजीत सिंह ने पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के इकलौते पुत्र के रूप में जन्म लिया था। और यही वजह थी कि उन्हें राजनीति विरासत में मिली। अजीत सिंह ने आईआईटी खड़गपुर से अपनी पढ़ाई पूरी की थी। इसके बाद फिर उन्होंने अमेरिका के इलिनोइस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से भी पढ़ाई की और अमेरिका में ही नौकरी करने लगे।

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साल 1986 में उनके पिता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह बीमार पड़ गए, जिसके बाद अजीत सिंह को भारत बुलाया गया। और यही वह 1986 का साल था जिसमें अजीत सिंह ने अपनी सियासी पारी शुरू की। इसके बाद अजित सिंह को 1986 में राज्यसभा भेजा गया। और इसी के साथ अजीत सिंह भारतीय राजनीति में सफर शुरू करने वाले पहले आईआईटियन बने। इसके बाद खुद को जाटों के नेता के रूप में स्थापित करने में कामयाब रहे अजीत सिंह ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

क्यों कहा जाता था अजीत सिंह को राजनीति का ‘मौसम वैज्ञानिक’?

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रामविलास पासवान की तरह अजीत सिंह को भी कभी भारतीय राजनीति का मौसम वैज्ञानिक समझा गया था। असल मायने में अजीत सिंह का राजनीति के मौसम वैज्ञानिक बनने का सफर शुरू हुआ था साल 1996 में, जब नरसिंह राव के हाथ से सत्ता जाते ही उन्होंने कांग्रेस पार्टी से किनारा कर लिया था।

आपको बता दें, इस सरकार में अजीत सिंह बतौर केंद्रीय मंत्री अपनी जिम्मेदारियां निभा रहे थे। इसके बाद उन्होंने भारतीय किसान कामगार पार्टी के नाम से नई पार्टी बनाई और साल 1997 में अपनी ही छोड़ी बागपत सीट से उपचुनाव जीतकर लोकसभा पहुंच गए।

इस नई पार्टी को भारतीय किसान यूनियन के नेता बाबा महेंद्र सिंह टिकैत का भी समर्थन मिला था। उनकी नई पार्टी संयुक्त मोर्चे का हिस्सा बन गई।

आगे चलकर उनकी पार्टी का नाम राष्ट्रीय लोकदल हुआ, जो अबतक चल रहा है। इसी पार्टी के टिकट पर 1998 का चुनाव वह भाजपा के सोमपाल शास्त्री से हार बैठे। यह उनकी पहली चुनावी हार थी, लेकिन 13 महीने बाद ही मध्यावधि चुनाव की नौबत आ गई और उन्हें फिर लोकसभा जाने का मौका मिल गया। फिर इसके बाद आया साल 2001 जिसमें अजीत सिंह एनडीए में शामिल हो गए। और अटल सरकार में उन्हें कृषि मंत्री बनाया गया।

अजीत सिंह ने अपनी सियासी दृष्टि से भांप लिया कि आने वाला वक्त अटल सरकार के लिए ठीक नहीं है। इसी अनुमान के साथ साल 2003 में उन्होंने एनडीए और सरकार दोनों को छोड़ दिया। इसके बाद फिर 2009 में उनकी पार्टी राष्ट्रीय लोक दल ने एनडीए के साथ गठबंधन कर 7 सीटों पर चुनाव लड़ा और 5 सीटें हासिल की।

लेकिन फिर एक बार अजीत का एनडीए से मोहभंग हुआ। फिर एक बार उन्होंने पाला बदला। अब उन्होंने पारी शुरू की यूपीए के साथ। और फिर इसके बाद मनमोहन सरकार में उन्हें नागरिक उड्डयन मंत्री बनाया गया। और 2014 तक वह यूपीए का ही हिस्सा रहे।

अजीत सिंह का सियासी सफर

साल 1986 में अजीत सिंह सबसे पहली बार राज्यसभा भेजे गए। साल 1987 में चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद लोक दल 2 भागों में बंट गया। अजीत सिंह लोक दल (अ) के नए अध्यक्ष बने जबकि लोक दल लोकदल (ब) हेमवती नंदन बहुगुणा का गुट था। देवीलाल, कर्पूरी ठाकुर, मुलायम सिंह, शरद यादव और नाथूराम मिर्धा जैसे बड़े नेता बहुगुणा के साथ चले गए, जबकि उत्तर प्रदेश के अधिकतर विधायक अजित सिंह के साथ रहे।

साल 1989 में अजित सिंह पहली बार बागपत से लोकसभा पहुंचे। वीपी सिंह सरकार में उन्हें केंद्रीय मंत्री बनाया गया। इसके बाद वह 1991 में फिर बागपत से ही लोकसभा पहुंचे। इस बार नरसिम्हाराव की सरकार में उन्हें मंत्री बनाया गया।

साल 1996 में वह तीसरी बार कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा पहुंचे, लेकिन फिर उन्होंने कांग्रेस और सीट से इस्तीफा दे दिया। साल 1997 में उन्होंने राष्ट्रीय लोकदल की स्थापना की और साल 1997 के उपचुनाव में बागपत से जीतकर लोकसभा पहुंचे। लेकिन साल 1998 के चुनाव में वह हार गए, लेकिन साल 1999 के चुनाव में फिर जीतकर लोकसभा पहुंचे।

साल 2001 से 2003 तक अटल बिहारी सरकार में अजित सिंह मंत्री रहे। वहीं, साल 2011 में वह यूपीए का हिस्सा बन गए। साल 2011 से 2014 तक वह मनमोहन सरकार में मंत्री रहे। इसके बाद साल 2014 में वह बागपत सीट से चुनाव हार गए। और इसके बाद उनका हार का सिलसिला थमा नहीं। साल 2019 का लोकसभा चुनाव चौधरी अजित सिंह मुजफ्फरनगर से लड़े, लेकिन बीजेपी प्रत्याशी संजीव बलियान ने उन्हें हरा दिया।

अजीत सिंह का निजी परिचय

12 फरवरी, 1939 को अजीत सिंह का जन्म मेरठ के भडोला में हुआ था। इनके पिता चौधरी चरण सिंह देश के 5 प्रधानमंत्री रहे थे जबकि इनकी मां का नाम गायत्री देवी था। 17 जून, 1967 को राधिका सिंह से अजीत सिंह की शादी हुई थी जिनसे उन्हें 2 बेटी व 1 बेटा हुआ।

लोकसभा की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, अजीत सिंह को हर उस चीज में रुचि थी जो खेती और टेक्नोलॉजी से जुड़ी होती थी। इसके साथ ही उन्हें पढ़ने और गाने सुनने का भी शोक था।

अजीत सिंह ने अमेरिका में 15 साल तक नौकरी भी की थी। 6 मई, 2021 को कोविड-19 संक्रमण के चलते अजीत सिंह का निधन हो गया था। जिसके बाद उनके बेटे जयंत चौधरी को रालोद की कमान सौंपी गई।

फिलहाल पश्चिमी यूपी के जाट बाहुल्य वोटलैंड में चौधरी चरण सिंह की विरासत दांव पर लगी हुई है। 2014 के बाद से ही रालोद की राजनीतिक ताकत कमजोर हुई है। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद रालोद का वोट बैंक काफी तेजी से बीजेपी की ओर शिफ्ट हुआ।

अजीत चौधरी के बाद अब उनके बेटे जयंत चौधरी अपनी पार्टी और परिवार का पुराना राजनीतिक वैभव वापस लाने में जुटे हैं। 2022 का यूपी विधानसभा चुनाव इस बात का गवाह बनेगा कि जयंत अपने परिवार की राजनीतिक विरासत को संभाल पाते हैं या उनकी गाड़ी बेपटरी ही नजर आएगी।

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