काशी की वो इमारत…जहां लोग करते हैं मौत का इंतजार, यहां दीवारों के पीछे हैं बेबस कहानियां
लोगों के आंगन में पक्षी चहचहाते हैं, पर यहां मौत चहलकदमी करती है. कई बार ऐसा भी हुआ कि इस भवन के कंपाउंड में एक…
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लोगों के आंगन में पक्षी चहचहाते हैं, पर यहां मौत चहलकदमी करती है. कई बार ऐसा भी हुआ कि इस भवन के कंपाउंड में एक दिन में कई लोगों ने देह छोड़ दी. यहां हर कमरे की सफेद दीवार के पीछे मौत की स्याही है. काशी के लंका से पहलवान लस्सी के दुकान से ठंडाई की खुशबू लेते हुए आप जैसे ही अस्सी घाट के तरफ बढ़ेंगे तो रास्ते में गंगा से पहले आपको रास्ते में एक नाला दिखा जाएगा. लोग इसे अस्सी नाले के नाम से जानते हैं, जो पहले अस्सी नदी हुआ करती थी और गंगा में समा जाती थी पर अब इसमें दुर्गंध मारते काले पानी के सिवा कुछ भी नहीं. नाले से कुछ ही मीटर की दूरी तय करने पर एक बड़ा भवन दिखाई देता है, जिसका नाम मुमुक्षु भवन है. इस भवन में लोग मौत का इंतजार करते हैं.
मुमुक्षु भवन की स्थापना पंडित घनश्याम दत्त जी ने 1920 में काशीवास और मोक्ष के लिए आनेवाले लोगों के लिए की थी. इसके लिए राजा बलदेव दास बिड़ला ने जमीन और आर्थिक मदद दी थी. यह भवन पांच एकड़ में बना है.
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मुक्ति के लिए काशी आने वाले पुरुषों और महिलाओं को काशीवासी कहा जाता है. मुमुक्षु भवन के 116 कमरों में से 40 कमरे मृत्यु का इंतज़ार करने वाले काशीवासियों के लिए आवंटित हैं. इस भवन की व्यवस्था देखने वालों के मुताबिक इस भवन में रहने के लिए हर साल ढेरों आवेदन आते रहते हैं लेकिन कमरों की संख्या सीमित होने की वजह से कुछ को ही यहाँ रहने का मौका मिलता है. इस भवन में सिर्फ उन्हीं लोगों को प्राथमिकता दी जाती है जो ज़्यादा ज़रूरतमंद होते हैं, जो अपने ख़र्च उठा सकते हैं और जिनके रिश्तेदार उनकी सेहत और मृत्यु के बाद दाह-संस्कार की ज़िम्मेदारी उठा सकते हैं. हांलाकि भवन का देख रेख करने वाला ट्रस्ट उन लोगों की भी मदद करता है, जिनका कोई नहीं है.
मुमुक्षु भवन में आते ही हमें एक बूढ़ी महिला मिल जाती हैं, जिनकी उम्र 70 वर्ष के आस-पास होगी. महिला से बात करने पर पता चलता है कि उनका नाम गुलाब देवी है, जो मध्य प्रदेश के इटारसी की रहने वाली हैं. ये अपने पति शिवनाथ राम के साथ 30 साल पहले काशी आयी थीं. यहीं मुक्ति की राह देखते हुए उनके पति गुजर गए और अब वे अपने मोक्ष की राह देख रही हैं. गुलाब बताती हैं कि इनके तीन बेटे और दो बेटियां हैं, सभी अपने जीवन में व्यस्त हैं. पहले वह उनसे मिलने जाती थी पर अब स्वास्थ्य उनका साथ नहीं देता तो कहीं नहीं जा पाती. अब बस उन्हें मोक्ष (मौत) का इंतजार है.
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बनारस के बगल चन्दौली की रहने वाली गीता अपने दिव्यांग बेटे कैलाश के साथ काशी के मुमुक्ष भवन में निवास करती हैं. इन्हें 20 सालों से अपने मौत का इंतजार है. परिवार में और कोई नहीं है, पति की मौत के बाद सभी ने साथ छोड़ दिया तो गीता काशी चली आयीं. वहीं लोगों से बात करते देख मेरे पास एक और बुजुर्ग महिला आई. पूछने पर पता चला की ये बनारस DAV कॉलेज की प्रिसंपल रह चुकी सरस्वती देवी हैं. पति के मृत्यु के बाद इनका कोई नहीं बस ये अकेली ही यहां रहती हैं. भवन के लोग ही इनकी देख भाल करते हैं.
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मुमुक्षु भवन के मंत्री कृष्ण कुमार कालरा ने बताया कि यहां अफसर, इंजीनियर, अध्यापक, डॉक्टर, प्रोफेसर और बड़े पदों पर रह चुके लोग रह रहे हैं और आम आदमी भी. ये काफी प्राचीन संस्था है और इसे यहां 100 वर्ष भी पूरे हो गए हैं. इस भवन में दंडी स्वामियों के लिए रहने के लिए कमरे, संस्कृत उच्च शिक्षा के लिए महाविद्यालय, अतिथिशाला, साधारण पर्यटक आवास, धार्मिक अनुष्ठान के लिए जगह, आयुर्वेदिक और होम्योपैथिक औषधिशाला भी है. यहां काशीवास के लिए जो भी लोग रुकते हैं, उनके परिवार का कोई गारेंटर होना आवश्यक है, जो उनकी पूरी जिम्मेदारी ले ताकि तबियत अत्यधिक खराब होने पर वो उनको डॉक्टर के पास ले जा सके और देखभाल कर सके. बनारस के लोगो को इसमें स्थान नहीं दिया जाता. बाहरी लोगों को ही इस भवन में रहने की अनुमति है. बिजली-पानी का किराया महीने का बस 100 से 200 रुपए देने पड़ते हैं, उनको खाना खुद बनाना पड़ता है.
पुराणों के अनुसार माना जाता है कि “काश्याम मरणात मुक्तिः” यानि जिसने काशी में अपना देह त्यागा, उसे जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है. शायद यही कारण है कि सनातन धर्म को मानने वाले बुजुर्ग काशी की पावन धरती पर अपना नश्वर शरीर त्याग करने की इच्छा लिए चले आते हैं.
लेकिन मुमुक्षु भवन में ऐसे लोग भी मिले जिनके परिवार होते हुए भी वह यहां अकेले रह रहे हैं. शायद अकेले रह कर मौत का इंतजार करना भी किसी कठिन तपस्या से कम नहीं. काशी कबीर की भी धरती है. उस समय भी जब लोग मोक्ष की लालसा में प्राण त्यागने के लिए काशी जाते थे, तब कबीर ने काशी छोड़कर उस मगहर में प्राण त्यागने का फैसला किया, जिसे लोग नर्क का द्वार कहते थे. अपने इस फैसले के बारे में कबीर ने लिखा था…
क्या कासी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा. (काशी हो या मगहर का ऊसर, मेरे लिए दोनों एक जैसे है, क्योंकि मेरे हृदय में राम बसते हैं. अगर कबीर ने मोक्ष के लिए काशी में शरीर का त्याग किया, तो फिर राम पर मेरे विश्वास का क्या होगा?)
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