आसमान में धान बोने वाला किसान...रमाशंकर 'विद्रोही', जिनकी कविताओं ने सभ्यताओं से मांगी जली हुईं लाशों का हिसाब
Ramashankar yadav vidrohi : 'विद्रोही' अपनी कविताओं में सीधा समाज से सवाल करते. उनकी कविताओं में सवाल, अकसर तर्क में बदल जाते और तर्क, एक जिद में. कविताओं में उनकी जिद ही उन्हें 'विद्रोही' बनाती.
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मैं किसान हूं, आसमान में धान बो रहा हूँ... रमाशंकर 'विद्रोही' पत्रकारिता का ककहरा सीखते वक्त पहली बार ये नाम सुना था. 'सहित्य की तरफ झुकाव' वाले वरदान के साथ छात्र, हिन्दी पत्रकारिता की पढ़ाई करने आते हैं. इसी वरदान के कारण ही भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) में पहली बार 'विद्रोह' की कुछ पंक्तियां सुनी जो दिलों दिमाग पर असर कर गई. वो पंक्तियाँ थी -
मैं तुम्हें इसलिए प्यार नहीं करता
कि तुम बहुत सुंदर हो,
और मुझे बहुत अच्छी लगती हो.
मैं तुम्हें इसलिए प्यार करता हूं
कि जब मैं तुम्हें देखता हूं.
तो मुझे लगता है कि क्रांति होगी... इन पंक्तियों को सुनने के बाद शुरु हुआ रामशंकर यादव से 'विद्रोही' बने इंसान की यात्रा को जानने और समझने की कोशिश.
साइमन, न्याय के कटघरे में...
किसने कहा है ये तो नहीं पता पर, इस दुनिया में आया हर व्यक्ति कभी ना कभी स्थायित्व की तलाश करता है. पर ऐसे भी कुछ लोग हैं जिन्हें अस्थायित्व अपना साथी बनाता है और अस्थायित्व से संवाद उन्हें असहज तक नहीं करता. जो समय, समाज और उसकी बेमेल-पक्षपाती परंपराओं को हर घड़ी एक सृजनात्मक आँख दिखाते हैं. रामशंकर विद्रोही ऐसे ही कवि थे. जहां थक हार के सो जाए वहीं उनका घर. सुल्तानपुर से चला रमाशंकर यादव, एक युवा छात्र जो राजनीतिक क्रूरताओं में फंस गया. JNU के अस्सी के दशक के एडमिनिस्ट्रेशन के द्वारा अपने केंद्र से बेदखल हुआ और फिर बिना हार माने वही जे.एन.यू में बैठकर प्रतिरोध की कविताएं कहने लगा तो लोग उसे विद्रोही समझा. उनकी कविताओं में गुस्सा, दर्द और ना जाने कितनों की हारी हुई लड़ाइयों का एक अतिमानवीय गिल्ट था. जेएनयू कैंपस ही उनका घर और वो यहां के कवि. उनके होते हुए और जाने के बाद भी, लोग जेएनयू आते तो उन्हें 'विद्रोही' नाम से ही खोजते.
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मैं साइमन
न्याय के कटघरे में खड़ा हूं
प्रकृति और मनुष्य मेरी गवाही दें
मैं वहां से बोल रहा हूं
जहां मोहनजोदाड़ो के तालाब की आखिरी सीढ़ी है
जिस पर एक औरत की जली हुई
लाश पड़ी है
और तालाब में इंसानों की हड्डियां
बिखरी पड़ी हैं.
रमाशंकर विद्रोही के संग जे.एन.यू में लंबे समय तक रहे कलाकार/ कवि प्रत्यूष पुष्कर बताते हैं, 'करीब 9 बरस पहले यही दिसंबर की एक शाम थी, जब हम तक उनके गुजरने की खबर पहुंची.पता चला कि वो कैंपस के कई मित्रों और छात्रों के साथ शिक्षा नीतियों के खिलाफ एक प्रदर्शन में थे. उनका जो प्रतिदिन का किरदार था- उसे ही वो अपने अंतिम प्रदर्शन में निभा रहे थे कि देह ने जवाब दे दिया. हम कई कलाकार उसी शाम जुड़े और उनकी कविताएं पढ़ी, रिकॉर्ड की, कुछ और ना कर सकने के अपराधबोध के साथ ही सबसे साझा किया.
विद्रोही के अलविदा कहने के ठीक पहले की मुलाकातों में उनकी नजरें कमजोर होती दिख रही थीं और शरीर दुबला हो गया था. उस स्थिति में भी उन्हें लोगों की आजादी और संवाद से ज्यादा कुछ भी नहीं भाता. जिस हक़ से वो प्रोटेस्ट में उपस्थित रहते, कविता कहते, नारे लगाते- उसी हक़ की लड़ाइयों में, प्रतिरोधों में, जुलूसों में...मानो वो कहीं खो से गए.’
मुझे मसीहाई में यकीन नहीं...
प्रत्यूष आगे बताते हैं, 'विद्रोही' के भीतर के निर्भीक थिंकर को समझने का ये सही समय है, जो अपने बहुत भीतर छिपे किसी भी विचार को सतह पर लाने से डरते नहीं थे. उनका सच, उनके भीतर के सभी मंथन का आईना था. अपनी पिछली और आने वाली पीढ़ियों की औरतों के बारे में कही गई उनकी कविता हो या ‘भारत भाग्य विधाता’ पर- उन्होंने हमेशा एक रेस्पोंस क्रिएट करने की, एक संवाद शुरू करने की ही कोशिश की. यहां तक कहा कि मुझे इनाम न दे सको तो सजा दो. एक हिंदी और जनवादी कवि से जुड़ी कई ट्रेजेडी और कई फंतासियों को निर्भीक जीने वाला एक विनम्र युवा! कई दशक अपनों से एक नियत दूरी पर और अजनबियों से एक उम्मीद पर, उनका कहा हुआ जब बाकियों ने लिखा, पढ़ा तो बन सकी उनकी सच्ची किताब, उनकी कविताओं का एकमात्र संग्रह-‘नयी खेती’.
कोई खुदा नहीं, खुदा का बच्चा भी नहीं
सवाल आदमी का है, आदमी ही खड़ा होगा.
और मैं मसीहाई में यकीन रखता ही नहीं,
मैं मानता ही नहीं कि कोई मुझसे बड़ा होगा
‘मैं तुम्हारा कवि हूं’ नाम से 'विद्रोही' पर डॉक्यूमेंट्री भी बनी है,जो कि काफी चर्चित है. इसे यूट्यूब पर आसानी से देखा जा सकता है. इस डॉक्यूमेंट्री को नितिन पनमानी ने बनाया है. अपने उपर बनी डॉक्यूमेंट्री में विद्रोही खुद कहते हैं, 'मैं किसी से भी ज्यादा शहरी हूं और किसी से भी ज्यादा ग्रामीण. कपड़ों से आदमी की पहचान करने वालों के लिए विद्रोही किसी पूर्ण विराम की तरह थे. इंसान को अपने भीतर झांकने को मजबूर करने वाले कवि.अपनी कविताओं से उस इंसान को तलाशने, तराशने और अपनी रौशनी बचा लेने के गुर सिखाता एक अथक कवि.
भविष्य की आखिरी औरत कौन होगी...
इतिहास में वह पहली औरत कौन थी
जिसे सबसे पहले जलाया गया
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही होगी
मेरी माँ रही होगी
लेकिन मेरी चिंता यह है कि
भविष्य में वह आख़िरी औरत कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी
मेरी बेटी होगी
और मैं यह नहीं होने दूंगा
विद्रोही अपनी कविताओं में सीधा समाज से सवाल करते. उनकी कविताओं में सवाल, अकसर तर्क में बदल जाते और तर्क, एक जिद में. कविताओं में जिद ही उन्हें विद्रोही बनाती. अपनी डाक्यूमेंट्री में विद्रोही खुद कहते हैं कि, 'जब कवि रोता है तो भी कविता होती है और जब गाता है तो भी वो कविता होती है कविता एक कर्म है, जिसे मैं करता हूं. फिर भी लोग मुझसे पूछते हैं कि विद्रोही तुम और क्या करते हो? अगर कल को मुझे कोई पुरस्कार मिल तो विद्रोही का कविता करना काम हो जाएगा. इस देश में हर जगह सीढ़ियां है, कपड़ों की सीढ़ियां हैं, गाड़ियों की सीढियां हैं, डिग्रियों की सीढियां हैं, नोटों की सीढियां हैं और उन सीढ़ियों में मुझ जैसे इंसान को बैठने की जगह ना मिले.'