‘यादव टैग’ संग मायावती के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश में अखिलेश, कितने होंगे कामयाब?

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अभी जब आने वाले दिनों में मौसम सर्द होना शुरू होगा, उसके उलट उत्तर प्रदेश में सियासी गर्मी बढ़ती ही जाएगी. यूपी में विधानसभा चुनावों की आहट जैसे-जैसे पास आ रही है, राजनीतिक दल खुद को चुनावी रण में झोंक रहे हैं. इसी कवायद में समाजवादी पार्टी सुप्रीमो अखिलेश यादव ने 12 अक्टूबर को ‘समाजवादी विजय यात्रा’ की शुरुआत की है. रथ यात्रा के जरिए यूपी में एक बार सत्ता की चाबी हासिल करने का सफल प्रयोग कर चुके अखिलेश ने इस बार का जो ‘हाईटेक रथ’ डिजाइन कराया है, उसपर लोहिया और मुलायम के साथ डॉक्टर अंबेडकर की भी तस्वीर लगी है. यह अनायास नहीं है. एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है. वह रणनीति, जिसे मोटे तौर पर मायावती के दलित वोट बैंक में सेंध लगाने की कवायद के रूप में परिभाषित किया जा रहा है.

सिर्फ तस्वीर वाली सियासत नहीं, अखिलेश ने इससे कहीं आगे का खेल खेला है

क्या अखिलेश सिर्फ अंबेडकर की तस्वीर वाली सियासत कर दलित वोट पाने का सपना देख रहे हैं? इस सवाल का जवाब देने से पहले आपको अखिलेश यादव के दो पुराने ट्वीट्स दिखाते हैं. पहला ट्वीट 8 अप्रैल 2021 का है और दूसरा ट्वीट 11 अप्रैल 2021 का. पहले ट्वीट में अखिलेश यादव डॉ. अंबेडकर की जयंती पर ‘दलित दीवाली’ मनाने का आग्रह कर रहे हैं. दूसरे ट्वीट में वह ‘बाबा साहेब वाहिनी’ के गठन का संकल्प ले रहे हैं.

इन दोनों ट्वीट में अखिलेश यादव की उस ‘नई आकांक्षा’ के संकेत मिल रहे हैं, जो 2022 को लेकर उनके मन में पनपती दिख रही है. अखिलेश की यह आकांक्षा है मायावती के दलित वोट बैंक में सेंध की. मायावती के हार्डकोर जाटव वोट बैंक और नॉन जाटव दलित वोटर्स पर अखिलेश की नजर है.

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एक अनुमान के तहत यूपी में करीब 20 से 22 फीसदी दलित वोट हैं. इस वोट बैंक पर कभी मायावती का कब्जा माना जाता था. पर आज इसे लेकर खुला खेल चल रहा है. पिछले 2014 के आम चुनावों से लेकर 2017 विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने इस वोट बैंक में अच्छी खासी सेंध लगाई थी. अब अखिलेश ने भी कुछ ऐसा ही मन बनाया है.

इसी कवायद में अखिलेश मायावती के पुराने सिपहसलारों को अपने साथ भी ला रहे हैं. पर बड़ा सवाल यह है कि ‘यादव टैग’ के साथ क्या अखिलेश यादव दलित वोट बैंक को अपनी ओर करने में सफल साबित होंगे? क्या यूपी में ओबीसी (खासकर यादव) बनाम दलित जातियों के बीच कथित संघर्ष का नैरेटिव अखिलेश की योजना के आडे़ नहीं आएगा? आइए इसी को तफसील से समझने की कोशिश करते हैं.

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मिले मुलायम-कांशीराम से लेकर बुआ-बबुआ तक की यात्रा

1990 के दशक में यूपी में जब कमंडल की राजनीति ताकतवर बनती नजर आई तो कांशीराम और मुलायम की जुगलबंदी ने इसे फौरी तौर पर शिकस्त दी. तब नारा भी उछला कि मिले ‘मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम.’ हालांकि बाद में यह जुलगबंदी टूटी और ऐसा टूटी कि फिर यूपी की सियासत में ओबीसी खासकर यादव बनाम दलित जातियों के कथित वैमनस्व के दौर की भी एंट्री हुई. यूपी की राजनीति में हमेशा के लिए एक दाग की तरह रह जाने वाला गेस्ट ‘हाउस कांड’ तक देखने को मिला.

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कहते हैं कि राजनीति में कोई स्थाई दुश्मन या दोस्त नहीं होता. ऐसा ही कुछ समाजवादी पार्टी और बीएसपी के साथ भी हुआ. 2014 के बाद से ही मोदी नाम के सहारे अजेय हुई बीजेपी ने जब 2017 के विधानसभा चुनावों में दोनों ताकतवर क्षेत्रीय दलों को चुनावी युद्ध में रौंद दिया, तो 2019 में यूपी की राजनीति ने महागठबंधन का अभिनव प्रयोग भी देखा. मायावती और अखिलेश (बुआ और बबुआ) संग आए और जातिगत समीकरणों के हिसाब से यह गठबंधन कागज पर अजेय दिखा, लेकिन बीजेपी ने इसे भी शिकस्त दे दी.

इसके बाद यह महागठबंधन टूट गया और मायावती ने आरोप लगाया कि एसपी अपने वोटों (खासकर यादव वोट बैंक) का ट्रांसफर बीएसपी के कैंडिडेट्स को नहीं करा पाई. इसके पीछे भी तर्क वही जमीनी सामाजिक समीकरण के थे. ऐसे में यह सवाल अब जाकर अहम हो गया है कि क्या अखिलेश खुद के बूते बीएसपी के दलित वोट बैंक को अपनी ओर खींच पाने में सफल होंगे, जबकि ‘यादव टैग’ उनके साथ हमेशा चलता रहेगा?

इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमने सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स (CSSP) के फेलो और एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. संजय कुमार संग बात की.

राजनीति परसेप्शन का खेल है, मायावती इस खेल में पिछड़ती दिख रही हैं और उनका वोट बैंक टारगेट पर तो है: एक्सपर्ट

डॉ. संजय कुमार ने इस संबंध में कई दिलचस्प बातें बताईं. उन्होंने कहा कि राजनीति और खासकर यूपी की राजनीति की इतनी सरल व्याख्या नहीं हो सकती कि किसी एक फॉर्म्युला को विनिंग फॉर्म्युला बता सीटों का आंकलन कर दिया जाए. हालांकि वह इतना जरूर मान रहे हैं कि पॉप्युलर परसेप्शन में मायावती पिछड़ रही हैं और उनका वोट बैंक दांव पर तो जरूर है.

वह कहते हैं, ‘सवाल अहम यह है कि पॉपुलर परसेप्शन क्या है? जीत के दावे सभी करते हैं, लेकिन जनता के मन में क्या है, उसे समझना असली खेल है. पिछले एक वर्ष में लोगों के अंदर यह परेस्पशन जरूर आया है कि मायावती और बीजेपी में कहीं कोई सांठगांठ तो नहीं? अब इसकी वजह चाहे जो हो.’

वह एक मजेदार आंकड़ा देते हुए यूपी की राजनीति की जटिलता समझाते हैं. डॉ संजय बताते हैं, ‘2017 के चुनावों की बात करें तो बीएसपी को 22.23 फीसदी वोट मिले जबकि सीटें मिलीं 19. समाजवादी पार्टी को 21.82 फीसदी वोट मिले थे, यानी बीएसपी से कम वोट लेकिन सीट 47 सीटें मिलीं. ये जो चुनावी मैट्रिक्स है, इसे समझना बहुत जरूरी है.’

यह सारा खेल गुणा गणित का है. यूपी की राजनीति में जो भी पार्टी 28-30 फीसदी (वोट शेयर) के आसपास होती है, तो वह सरकार बनाने की स्थिति में आ जाती है. 2007 में बीएसी को 30.4 फीसदी वोट मिले और सीटें आईं 206. एसपी को करीब 5 फीसदी वोट कम मिले, तो उनकी सीटें आईं 97. 2012 के चुनावों में एसपी को 29.1 फीसदी वोट मिले तो 224 सीटें मिलीं और उनसे करीब 3 से सवा 3 फीसदी कम वोट पाने (25.91 फीसदी वोट) पर मायावती को 80 सीटें मिलीं. इस खेल को समझने की जरूरत है.

डॉ. संजय कुमार

चुनावी विश्लेषक डॉ संजय कुमार बताते हैं कि अखिलेश यादव ने 2022 के लिए कानपुर से अपनी जिस चुनावी यात्रा की शुरुआत की है, उसे इसी गणित के संदर्भ में समझा जाना चाहिए.

वह कहते हैं…

अखिलेश का सारा फोकस इसी बात पर है कि वह किस जुगत से मायावती के दलित वोट बैंक से 4-5 फीसदी वोट निकाल ले जाएं. अगर ऐसा करने में अखिलेश कामयाब हो जाएंगे तो उनकी चुनावी संभावनाएं जबर्दस्त रूप से बढ़ जाएंगी. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मेरा मानना है कि इस बार के चुनाव में एसपी के 27-28 फीसदी वोट के आसपास खड़ी नजर आ रही है. यह उनका अपना मुस्लिम-यादव वोट बैंक है जो इस बार भी उनके साथ मजबूती से रहने वाला है. ओवैसी फैक्टर का असर मुस्लिम वोटों पर नहीं पड़ेगा

डॉ. संजय कुमार

प्रियंका के नेतृत्व में कांग्रेस की भी यही रणनीति पर सफलता किसे मिलेगी?

डॉ. संजय का यह भी कहना है कि मायावती की सियासी पोजिशनिंग को लेकर परसेप्शन बदलने के संकेत मिलने के बाद उनके दलित वोट बैंक पर कांग्रेस की भी नजर है. हालांकि उनका यह भी मानना है कि प्रियंका के असर से पार्टी में कुछ जोश तो नजर आ रहा है, लेकिन अभी वह लड़ाई में नजर आ नहीं रही है. ऐसे में यह देखना अहम होगा कि दलित वोटों को अपने पाले में करने के खेल में बाजी किसके हाथ लगेगी.

CSSP फेलो डॉ. संजय का यह भी मानना है कि यूपी में जिस कथित यादव बनाम दलित अदावत का हवाला दिया जा रहा, वैसा कुछ हकीकत में है नहीं. महागठबंधन को भले चुनावी जीत नहीं मिली, लेकिन उसने ओबीसी और दलित के बीच पनप रहे अंतर को काफी हद तक कम जरूर किया है. जातीय संघर्ष नहीं हैं, हालांकि राजनीतिक प्रतिद्वंद्विताएं जरूर हैं. ऐसे में उनके मुताबिक ऐसा मानना कोई अचरज का विषय नहीं होगा कि अखिलेश यादव दलित वोटर्स के लिए चल रही परसेप्शन की लड़ाई में लीड करते नजर आएं.

कहानी अखिलेश की ‘रथ यात्राओं’ की, क्या 2012 का ‘चमत्कार’ 2022 में दोहरा पाएंगे?

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