बर्थडे स्पेशल : PM मोदी और काशी की कथा, वाराणसी के पॉलिटिकल कैरेक्टर को साध देश को साधा?
बनारस इतिहास से भी पुरातन है. परंपराओं से पुराना है. किंवदंतियों से भी प्राचीन है और जब इन सभी को जोड़ दें, तो उन सबसे…
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बनारस इतिहास से भी पुरातन है. परंपराओं से पुराना है. किंवदंतियों से भी प्राचीन है और जब इन सभी को जोड़ दें, तो उन सबसे भी दोगुना प्राचीन है.
मार्क ट्वेन
यह तब की बात है जब देश में 2014 के आम चुनाव हुए नहीं थे. मई की गर्मियों के दिन थे और 13 मई 2013 राजनाथ सिंह ने अमित शाह को यूपी का प्रभारी बनाने की घोषणा की थी. तब शायद लोगों को इस बात का अंदाजा नहीं था कि इस बात के राजनीतिक मायने क्या हैं. वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी अपनी किताब, ‘बीजेपी- कल आज और कल’ में लिखते हैं कि उस समय बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं की एक बैठक चल रही थी. उस बैठक में वाराणसी से तत्कालीन बीजेपी सांसद मुरली मनोहर जोशी भी शामिल थे. अमित शाह ने डॉ. जोशी से कहा कि आप कानपुर से चुनाव लड़िए. मुरली मनोहर जोशी ने सवाल किया कि वाराणसी से कौन लड़ेगा? जवाब मिला, नरेंद्र मोदी.
किताब के दावे के मुताबिक मोदी को वाराणसी से मैदान में उतारने का विचार अमित शाह का ही था. शाह की योजना के मुताबिक नरेंद्र मोदी ने 2014 का चुनाव वाराणसी और वडोदरा, दोनों जगहों से लड़ा. पर चर्चे हुए सिर्फ वाराणसी के और उसके बाद जो हुआ वह इतिहास है. आज पीएम मोदी का जन्मदिन है. हमने वाराणसी से पीएम मोदी के जुड़ाव को लेकर यह समझना चाहा कि असल में इसके पीछे के राजनीतिक निहितार्थ क्या हैं? क्या पीएम ने काशी के पॉलिटिकल कैरेक्टर को साध पूरे देश को साध लिया? या संघ के किसी व्यापक एजेंडे को ध्यान में रख वाराणसी का खास चुनाव पीएम मोदी के लिए किया गया है?
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सिर्फ धार्मिक ही नहीं, बीजेपी ने काशी के राजनीतिक कैरेक्टर को भी पकड़ा
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काशी यानी वाराणसी, जिसके बारे में यह मान्यता है कि यह दुनिया का सबसे प्राचीन शहर है. वह शहर जिसे हिंदू धर्म में महादेव शिव से जोड़ा जाता है. धार्मिक मिजाज से इतर काशी का एक अपना राजनीतिक कैरेक्टर भी है. काशी हिंदू विश्वविद्याल (बीएचयू) में सोशल साइंस के डीन और पॉलिटिकल साइंस प्रोफेसर कौशल किशोर मिश्रा इसे अलग ढंग से एक्सप्लेन करते हैं. उनका कहना है कि 2014 में मोदी जब वाराणसी से चुनाव लड़ने आए तो इसका निहितार्थ सिर्फ मोदी और बनारसी समझ पाए. उनके मुताबिक काशी को सिर्फ काशी के रूप में नहीं बल्कि मिनी भारत के रूप में देखा जाना चाहिए. यहां अच्छी तादाद में गुजराती हैं, बंगाली हैं, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मद्रासी, असमी हैं. यानी काशी सही मायनों में भारत की प्रतिनिधि है. प्रोफेसर कौशल किशोर मिश्रा कहते हैं कि पीएम मोदी को इस बात का बखूबी अंदाजा था कि अगर वह काशी से चुनाव लड़ेंगे तो इसका संदेश पूरे देश में जाएगा और ठीक वैसा ही हुआ. उन्होंने बनारस को चुन एक तरह से पूरे भारत में अपना सिक्का जमा लिया.
इसी क्रम में प्रोफेसर मिश्रा यह भी बताते हैं कि असल में पीएम मोदी ने काशी को चुना तो काशी ने भी उन्हें चुना. पीएम मोदी को जब काशी की जनता वोट दे रही थी, तो वह सांसद का नहीं बल्कि प्रधानमंत्री का चुनाव कर रही थी. वह बताते हैं कि एक वक्त में जनसंघ और बाद में बीजेपी को ब्राह्मण-बनिया की पार्टी कहा गया. काशी में आकर पीएम मोदी ने एक नए सामाजिक गठबंधन का सूत्र खोज लिया. प्रोफेसर कौशल कहते हैं कि वारणसी 1952 के चुनाव से ही भारत के निर्माण का केंद्र रही है. अंग्रेजी हटाओ आंदोलन हो या लोहिया का समाजवादी आंदोलन या फिर जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति, काशी कहीं न कहीं केंद्र जरूर रही. अब पीएम मोदी ने इसे नए भारत के निर्माण का केंद्र बनाया है.
क्या काशी के बहाने 80 लोकसभा सीट और खासकर पूर्वांचल पर फोकस था?
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भारत की इलेक्टेरोल पॉलिटिक्स ऐसी है कि यहां सत्ता के सर्वोच्च शिखर यानी दिल्ली तक का रास्ता यूपी से होकर जाता दिखता है. वजह हैं यूपी की 80 लोकसभा सीटें. यूपी को साधने वाला दल ही अक्सर दिल्ली में सत्ता के गलियारों तक पहुंचता दिखाई देता है. यूपी की राजनीति में 2014 से पहले के करीब दो दशक समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की ताकत वाले दशक रहे. 2012 के चुनावों में भी अखिलेश यादव के नेतृत्व में एसपी ने अकेले दम पर बहुमत का आंकड़ा छुआ था. खासकर पूर्वांचल को एसपी-बीएसपी का गढ़ समझा जाता रहा है. ऐसे में स्वभाविक सवाल है कि क्या यूपी में वाराणसी सीट का चुनाव करके पीएम मोदी ने दिल्ली का मार्ग प्रशस्त किया?
बीएचयू के दर्शन विभाग के प्रोफेसर डीबी चौबे इससे इत्तेफाक रखते नजर आते हैं. उन्होंने कहा कि ‘पीएम मोदी ने 2014 में काशी में आकर कहा था कि मां गंगा ने मुझे बुलाया है. उन्होंने यहां राजनीति को एक सांस्कृतिक धरातल दिया. काशी का विकास भी संस्कृति को केंद्र में रखकर किया जा रहा है. काशी को इसलिए केंद्र बनाया क्योंकि यह एक सांस्कृतिक नगरी है और ऐसा करके पीएम मोदी ने निश्चित तौर पर पूर्वांचल की राजनीति को इससे प्रभावित किया. हालांकि इसे ऐसे भी समझा जाना चाहिए कि बीजेपी की राजनीति के केंद्र में राष्ट्र है और सही अर्थों में काशी ही उस राष्ट्र की राजधानी है. काशी को केंद्र में रखने के पीएम मोदी के फैसले ने राष्ट्रवाद को ऐसा उभार दिया कि पिछले तीन चुनावों में इसके सामने जाति आधारित राजनीति पस्त हो गई.’
हालांकि हिंदी पट्टी और संघ की राजनीति की समझ रखने वाले और पूर्वांचल केंद्रित ‘पूर्वापोस्ट’ से जुड़े पत्रकार व लेखक अखौरी अवतंस चित्रांश इसे बिल्कुल अलग नजरिए से देखते हैं. वह कहते हैं, ‘काशी को भारत की धार्मिक राजधानी समझा जाता है. राष्ट्र निर्माण की दृष्टि से भारत देश का विचार बनारस से ही बनता है. 2014 में आरएसएस या बीजेपी का जो उदय हुआ, उसमें बनारस केंद्र बिंदु है और पीएम मोदी का वाराणसी को चुनना उसी राष्ट्र निर्माण की नैरेटिव की स्थापना का एक हिस्सा है. इसे सिर्फ यूपी की लोकसभा सीटों या पूर्वांचल की सीटों पर ध्रुवीकरण के रूप में नहीं समझा जाना चाहिए. आप देखेंगे कि जब गजनी भारत पर हमला करता है, तो उस समय उसके साथ अल बरूनी भी आते हैं. अल बरूनी काशी का विस्तृत अध्ययन करते हैं. उनके अध्ययन से मिली समझ ही थी कि गोरी दिल्ली, कालिंजर जीतते हुए काशी को जीतने का लक्ष्य रखता है, क्योंकि अल बरूनी ने उन्हें यही बताया था कि काशी ही हिंदुस्तान की भाव भूमि है.
अवतंस चित्रांश आगे कहते हैं कि भारत में अगर कहीं हिंदू राष्ट्र का विचार है, तो उसके केंद्र में दिल्ली, पाटलीपुत्र या रायगढ़ नहीं बल्कि बनारस है और इस बात को बीजेपी व संघ बहुत अच्छे से समझते हैं. मोदी की हिंदू ध्वजवाहक की छवि में वाराणसी से मुफीद सीट कोई दूसरी हो नहीं सकती थी. बनारस महज मोदी का संसदीय क्षेत्र नहीं बल्कि हिंदू राष्ट्र का विचार है और इसका फायदा 2014 से ही बीजेपी को मिल रहा है.’
यूपी के मैदान में पीएम मोदी के उतरने से मिले फायदे की गवाही तो आंकड़े भी देते हैं
2014 के आम चुनावों से पहले यूपी का प्रभार मिलने के बाद अमित शाह के सामने चुनौतियां विशाल थीं. पार्टी वर्षों से राज्य की सत्ता से तो दूर थी ही, उसका चुनावी प्रदर्शन भी कुछ खास नहीं था. विजय त्रिवेदी अपनी किताब में लिखते हैं कि 1998 के चुनावों में बीजेपी को यूपी में 36 फीसदी वोट मिले थे. 1999 में यह 9 फीसदी कम होकर 27 फीसदी हो गए. 2004 में यह 24 फीसदी हुए. 2009 में 17 फीसदी और 2012 में यह 12 फीसदी पर पहुंच गए. यानी राह आसान नहीं थी. फिर बीजेपी ने पीएम मोदी को काशी से उतारा, वह पीएम कैंडिडेट थे और साल 2014 में पार्टी को यूपी से 42.32 फीसदी वोट मिले.
2017 विधानसभा चुनावों में भी बीजेपी को ऐतिहासिक जीत मिली. इस चुनाव के आखिरी चरण में पीएम मोदी ने काशी में बकायदा रोड शो किया. हालांकि तब विपक्षी दलों ने इसको लेकर काफी आलोचनाएं भी कीं. उस चुनाव में बीजेपी को यूपी में 39.7 फीसदी वोट मिले. 2019 में तो एसपी-बीएसपी के महागठबंधन के बावजूद बीजेपी को यूपी में करीब 50 फीसदी (49.6 फीसदी) वोट मिले.
हालांकि चुनावी विश्लेषकों का कहना है कि यूपी में बीजेपी के उभार के अन्य भी कई कारण हैं. मसलन बीजेपी ने जाति के सामने धर्म का नैरेटिव स्थापित किया. एसपी-बीएसी के शासनकाल की वजह से उनके खिलाफ रोष था. और भी दूसरे ऐसे कई फैक्टर थे, जिनके इस्तेमाल से बीजेपी ने यूपी के रण को जीता. पर इसमें पीएम मोदी के खुद यूपी के काशी से चुनाव लड़ना भी एक अहम फैक्टर था. अब 2022 के चुनाव सिर पर हैं. इस बार पूर्वांचल में एक ओर काशी का प्रतिनिधित्व मोदी कर रहे हैं, तो इसी क्षेत्र के गोरखपुर के मठ से आने वाले योगी आदित्यनाथ प्रदेश के सीएम हैं. ऐसे में यह देखना रोचक होगा कि इन नेताओं की लोकप्रियता बीजेपी को आगामी विधानसभा चुनावों में कितना फायदा पहुंचा पाती है.
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