चाचा शिवपाल को अखिलेश ने लगाया किनारे या नया है कोई प्लान...सपा प्रमुख ने एक तीर से साधे कई निशाने
लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव के PDA (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक-अगड़ा) के नारे ने बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग को पटखनी दे दी और उसे तीसरी बार केंद्र में बहुमत पाने से रोक दिया.
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Uttar Pradesh News : उत्तर प्रदेश में राजनीति अब जातिगत समीकरणों के इर्द-गिर्द हो रही है. लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव के PDA (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक-अगड़ा) के नारे ने बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग को पटखनी दे दी और उसे तीसरी बार केंद्र में बहुमत पाने से रोक दिया. अखिलेश के एक नारे और कास्ट केमिस्ट्री ने पूरी बीजेपी को परेशानी में डाल दिया है. भगवा पार्टी को समझ नहीं आ रहा है कि वो इसकी काट कैसे खोजे. राजनीति के जानकारों की मानें तो भाजपा तीन मोर्चों पर लड़ने में फिसड्डी साबित हो जाती है और उसे हार का सामना करना पड़ता है. ये तीन चीजें हैं:
- . कास्ट बनाम हिन्दुत्व यानी कमंडल पर मंडल हावी हो जाए
- . चुनाव में क्षेत्रीय दलों से सीधी लड़ाई हो जाए
- . और स्थानीय मुद्दों का केंद्रीय एजेंडों पर हावी होना
इन्हीं सब को संस्थागत करने यानी बीजेपी के कास्ट फैक्टर को खत्म करने के लिए अखिलेश यादव एक के बाद एक फैसले ले रहे हैं. इन्हीं सब से जुड़ा है यूपी विधानसभा में सियासी लिहाज से काफी अहम नेता प्रतिपक्ष का पद किसी ब्राह्मण को सौंपना. अखिलेश ने तमाम कयासों पर विराम लगाते हुए पूर्व विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय को LOP बनाया है. इस रेस में और भी बड़े चेहरे शामिल थे जो अखिलेश के कास्ट इक्वेशन में फिट भी बैठते थे. मसलन इंद्रजीत सरोज, शिवपाल यादव या फिर किसी मुस्लिम चेहरे अखिलेश तवज्जो दे सकते थे.
कौन हैं नए नेता प्रतिपक्ष
सात बार के विधायक माता प्रसाद पांडेय उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर के गांव पिरैला से आते हैं. 81 वर्षीय पांडेय यूपी विधानसभा में पूर्व की सपा सरकारों में दो बार स्पीकर की जिम्मेदारी संभाल चुके हैं. आठवीं विधानसभा में 1980 में पहली बार विधायक चुने गए माता प्रसाद पांडेय, मुलायम सिंह की सरकार में मंत्री पद भी संभाल चुके हैं. उन्हें कई समितियों में काम करने का भी अनुभव है.
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अखिलेश ने क्यों दी इतनी बड़ी जिम्मेदारी
अखिलेश के इस फैसले के पीछे की कई वजहें हैं. सपा अध्यक्ष ने LOP के फैसले में कई बातों का ख्याल रखा है. उन्होंने यूपी में जाति के लिहाज से तीसरी सबसे बड़ी जाति ब्राह्मणों, जो बीजेपी के परंपरागत वोटर माने जाते हैं. इसमें बड़ी सेंधमारी करने की कोशिश की है. अखिलेश को इस बात का एहसास है कि उन्हें 2027 में किला फतह करने के लिए न सिर्फ अपने वोटर्स को बनाए रखना होगा बल्कि बीजेपी के वोट बैंक में भी तोड़फोड़ करनी पड़ेगी.
अगर आंकड़ों की बात करें तो उत्तर प्रदेश में करीब 18 फीसदी सवर्ण जातियां हैं, जिसमें 10 फीसदी से ज्यादा ब्राह्मण हैं. अखिलेश अगर कुल ब्राह्मण वोटों से कुछ परसेंट भी खींच लेते हैं तो बीजेपी का खेल ख़राब हो सकता है. यूपी में हमेशा से ठाकुर बनाम ब्राह्मण की लड़ाई रही है. मौजूदा बीजेपी सरकार, विशेषकर सीएम योगी पर गाहे-बगाहे राजपूतों को प्रश्रय देने के आरोप लगते रहे हैं. इसके अलावा देखें तो सीएम योगी स्वंय ठाकुर समाज से आते हैं और यूपी बीजेपी में भी कोई ऐसा ब्राह्मण चेहरा महत्वपूर्ण पद पर नहीं है जिसका कोई बड़ा जनाधार हो, उसकी सत्ता में हनक हो. ब्रजेश पाठक भले ही उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री हैं पर सत्ता में कोई भी काम सीएम योगी के चेहरे पर ही होता दिखता है. सपा प्रमुख बीजेपी के इसी फॉल्ट लाइन को और गहरा करना चाहते हैं.
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एक सवर्ण को LOP बनाकर अखिलेश ने कई निशाने साधे हैं. मसलन अखिलेश इससे पूर्वांचल के ब्राह्मणों को साध सकते हैं तो बीजेपी की अगड़ों में मजबूत जमीन भी खिसका सकते हैं. दूसरी तरफ माता प्रसाद कोई आम राजनेता तो हैं नहीं, सात बार के विधायक, दो बार के अध्यक्ष, मंत्री रहने के अलावा वो पुराने समाजवादी हैं. सपा अध्यक्ष ने इस फैसले से ये बताने की कोशिश की है कि पार्टी के प्रति वफादारी का ईनाम जरूर मिलेगा, भले वो यादव परिवार से हो या न हो.
कहां चूक गए शिवपाल
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यूपी विधानसभा के मॉनसून सत्र में बात रखते हुए सपा महासचिव शिवपाल यादव पर तीखा तंज कसा और गच्चे की बात कर उनकी मौज ले ली. उन्होंने चाचा-भतीजे के बीच के कथित पुराने मनमुटाव को हवा देने की कोशिश की. योगी जानते हैं कि शिवपाल LOP का पद कायदे से चाह रहे थे. अखिलेश की गैरमौजूदगी में चाचा के पास ये सुनहरा मौका था कि वो पार्टी का सदन में नेतृत्व करें, लेकिन अखिलेश ने उनकी इच्छा पर पानी फेर दिया. अब भी ये सवाल बरकार है कि आखिर चाचा शिवपाल को अखिलेश ने उनकी इच्छा और संगठन से छिटपुट मांग के बाद भी LOP क्यों नहीं बनाया? इसकी कई वजहें हो सकती हैं, लेकिन मुख्य रूप से दो से तीन वजह हैं.
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- पहली वजह: परिवारवाद के आरोप से कुछ हद तक पार्टी को दूर रखना!
- अखिलेश स्वयं लोकसभा में पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं और अगर चाचा विधानसभा में LOP हों तो बीजेपी को बैठे बिठाए मुद्दा मिल जाएगा.
- दूसरी वजह: शिवपाल का अखिलेश से मनमुटाव का इतिहास!
मुलायम सिंह के रहते जिस तरह शिवपाल, अखिलेश के ख़िलाफ़ बगावती हुए, प्रसपा पार्टी बनाई और बीते लोकसभा में डिंपल की हार की वजह बने ये जगजाहिर है. मीडिया ख़बरों के मुताबिक चाचा अपनी नाराज़गी के वक्त बीजेपी और सरकार के भी संपर्क में रहे थे. उन्होंने सदन में बीते दिनों सदन में योगी के गच्चा वाले बयान पर जवाब देते हुए कहा भी कि आपने भी तो हमें ‘गच्चा’ दे दिया इसलिए इधर आ गए.
सपा अध्यक्ष इसे शायद पूरी तरह से भूले नहीं है और उन्होंने चाचा को खुले मन से माफ़ नहीं किया है. अखिलेश जानते हैं कि शिवपाल संगठन के आदमी हैं और उनकी पार्टी पर खूब पकड़ रही है. ऐसे में लखनऊ में पार्टी की कमान उनके हाथ देना किसी खतरे से खाली नहीं है. दूसरी तरफ अखिलेश ने इस फैसले से साबित किया कि उन पर किसी का दबाव नहीं चल सकता और वो ही पार्टी के सर्वे सर्वा हैं.
चाचा को लेकर अखिलेश ने निकाला लखनऊ-दिल्ली का फॉर्मूला
प्रसपा भंग कर सपा में विलय करने के पीछे की वजह ये नहीं थी कि चाचा को भतीजे पर प्रेम आ गया बल्कि इसके पीछे उनकी दूरगामी राजनीतिक सोच का नजरिया छिपा था. शिवपाल यादव, अपने बेटे आदित्य को राजनीतिक रूप से पैरों पर खड़े होते हुए देखना चाहते थे. अखिलेश जानते हैं कि चाचा फिलहाल बारगेन करने की स्थिति में नहीं हैं इसलिए वो महत्वपूर्ण नियुक्तियां अपने मन के हिसाब से कर सकते हैं. कुल मिलाकर अखिलेश ने माता प्रसाद की नियुक्ति से कई संदेश दिए हैं. उन्होंने न सिर्फ ब्राह्मण वोट जो नेतृत्व संकट से जूझ रहा है उसे अपनी तरफ लाने की कोशिश कर रहे हैं, इस समाज में भी अपनी स्वीकार्यता बढ़ा रहे हैं, पुराने समाजवादी-लोहियावादी नेताओं को सम्मान दे रहे हैं, शिवपाल को खेमे में रखना और खुद को दिल्ली से लेकर लखनऊ तक सेफ रखना.
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