‘गेस्ट हाउस कांड’ के आईने में देखिए अखिलेश की ‘दलित पॉलिटिक्स’, अब दलित देंगे SP का साथ?
2 जून 1995. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के स्टेट गेस्ट हाउस पर उस वक्त हमला होता है, जब वहां बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) नेता…
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2 जून 1995. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के स्टेट गेस्ट हाउस पर उस वक्त हमला होता है, जब वहां बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) नेता मायावती और पार्टी के विधायक मौजूद थे. हमलावर भीड़ में शामिल लोग बीएसपी विधायकों और उनके परिवारों को अपंग करने और मारने की धमकी देने वाले नारों के साथ-साथ ‘च$& पागल हो गए हैं, हमें उन्हें सबक सिखाना होगा’ जैसे जातिवादी नारे भी लगा रहे थे.
उत्तर प्रदेश की सियासत में जब भी समाजवादी पार्टी (एसपी), बीएसपी और ‘दलित वोट बैंक’, इन तीनों टर्म्स का एक साथ जिक्र होता है, तब ‘गेस्ट हाउस कांड’ की यह घटना भी चर्चा के दायरे में आ ही जाती है. अब फिर से ऐसा हो रहा है क्योंकि यूपी में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देजनर एसपी उस दलित ‘वोट बैंक’ में सेंधमारी की हरसंभव कोशिश करती दिख रही है, जिस पर लंबे वक्त से बीएसपी की मजबूत पकड़ मानी जाती रही है.
ऐसे में, उत्तर प्रदेश में 20-22 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले दलित वोटों को साधने के लिए एसपी, बीएसपी में काम कर चुके अनुभवी नेताओं के सहयोग और बाबा साहब अंबेडकर के नाम का सहारा लेकर एक नया समीकरण बनाने की कोशिश में नजर आ रही है. इसी क्रम में हाल ही में एसपी ने समाजवादी बाबा साहब वाहिनी का गठन किया और इसकी कमान पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले से आने वाले बीएसपी के पूर्व दलित नेता मिठाई लाल भारती को सौंपी.
भारती पहले बहुजन समाज पार्टी से जुड़े थे और जोनल कोऑर्डिनेटर समेत कई अहम पदों की जिम्मेदारी निभा चुके थे, लेकिन करीब दो साल पहले उन्होंने एसपी की सदस्यता ग्रहण की थी.
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यूपी की सियासत में काफी प्रभावी दलित ‘वोट बैंक’ का सियासी फायदा उठाने के लिए 20 साल से ज्यादा की रार के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए एसपी ने बीएसपी के साथ गठबंधन किया था. इस गठबंधन के वक्त भी मायावती ने ‘गेस्ट हाउस कांड’ का जिक्र किया था. उन्होंने कहा था कि वह बीजेपी के खिलाफ लड़ाई में जनहित को ‘गेस्ट हाउस कांड’ से ऊपर रख रही हैं. हालांकि, चुनावी नतीजों में नाकामयाब होने के बाद यह गठबंधन जल्द ही टूट गया.
यूपी में जिस गठबंधन को माना जा रहा था बीजेपी के लिए कठिन चुनौती, वो नाकाम कैसे हो गया?
इससे पहले साल 1993 में एसपी और बीएसपी ने मिलकर यूपी का विधानसभा चुनाव लड़ा था और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में साझा सरकार बनाई थी. मगर जून 1995 के ‘गेस्ट हाउस कांड’ के बाद यह गठबंधन टूट गया था. हालांकि इस कांड का असर सिर्फ एसपी और बीएसपी के बीच ‘कड़ी दुश्मनी’ तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि प्रदेश की सियासत में इन दोनों पार्टियों के कोर ‘वोट बैंक’ (एसपी के लिए यादव और बीएसपी के लिए दलित) को भी एक दूसरे के खिलाफ अलग-अलग खेमों में देखा जाने लगा.
इसलिए, जब सियासी गलियारों में इस सवाल का जवाब तलाशा जा रहा है कि क्या दलित एसपी के साथ जाएंगे, तब उस 1995 की गेस्ट हाउस की घटना के बारे में जान लेना भी जरूरी है क्योंकि यह घटना महज दो पार्टियों के बीच घमासान का नतीजा ही नहीं थी, बल्कि इसकी जड़ों में दो अलग-अलग विचारधाराएं भी थीं, जिनके संगम की फिर से कोशिशें हो रही हैं.
चलिए, 1993 से शुरू करते हैं,
1993 में यूपी की सत्ता में आने के बाद शुरुआती कुछ महीनों तक एसपी-बीएसपी का गठबंधन अच्छी तरह चला. दोनों दलों के बीच एक सामान्य वैचारिक बंधन मंडल आयोग की रिपोर्ट, सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने की नीति का समर्थन था.
मगर धीरे-धीरे वो मुद्दे उभरने लगे, जिनको लेकर एसपी और बीएसपी की राहें अलग-अलग थीं. ऐसा ही एक मुद्दा महात्मा गांधी से जुड़ा था.
अजय बोस ने अपनी किताब ‘बहनजी’ में लिखा है कि मायावती ने मार्च 1994 के पहले हफ्ते में मीडिया से बात करते हुए महात्मा गांधी को लेकर कहा,
”उनके कामों ने हमारी प्रगति को धीमा कर दिया है. गांधी ने दलितों को, हरिजन- भगवान की संतान कहा. मैं पूछती हूं, अगर दलित भगवान की संतान हैं, तो क्या बाकी लोग शैतान की संतान हैं? अगर गांधी को यह शब्द इतना पसंद था तो उन्होंने खुद को हरिजन क्यों नहीं कहा? उन्होंने अपने नाम के आगे हरिजन क्यों नहीं लगाया?”
मायावती
हालांकि, मीडिया के एक हिस्से ने उनके इस बयान को तोड़-मतोड़कर भी पेश किया था.
मगर, मायावती ने गांधी पर अपनी टिप्पणी वापस लेने से इनकार कर दिया. इतना ही नहीं, उन्होंने बैठकों, प्रेस कॉन्फ्रेंस और मीडिया इंटरव्यू में महात्मा गांधी के बारे में कई और आलोचनात्मक टिप्पणियां कीं. हालांकि, इस दौरान वह इसे लेकर सावधान रहीं कि किसी भी असंसदीय भाषा का इस्तेमाल न करें.
इस दौरान मुलायम सार्वजनिक रूप से मायावती की आलोचना करने से बचते दिखे, हालांकि उन्होंने यह कहकर उनकी टिप्पणी से खुद को दूर कर लिया कि वह महात्मा गांधी के बहुत बड़े प्रशंसक हैं.
साल 1994 का लगभग आधा हिस्सा गुजर जाने तक दोनों पार्टियों के बीच संबंध बहुत तक बिगड़ चुके थे. इसकी वजहों में एक यह भी थी कि दलितों पर अत्याचार की हिंसक घटनाएं तेजी से बढ़ रही थीं. इस मोर्चे पर मुलायम सरकार ने कदम भी उठाए, लेकिन वो हिंसा रोकने में पर्याप्त नहीं दिखे. माना यह जाता है कि बीएसपी के सत्ता में आने के बाद लंबे वक्त से हाशिए पर रहे दलित जब मुखर होने लगे तो उनकी आवाज को सीमित करने की कोशिशें हुईं और दलितों के खिलाफ हिंसा बढ़ने लगी.
इस बीच, बीएसपी के फाउंडर कांशीराम के साथ कभी-कभार होने वाली मुलायम सिंह की बैठकों से भी दोनों राजनीतिक सहयोगियों के बीच बढ़ते मतभेद हल नहीं हो पाए. असल में इन बैठकों ने संबंधों को और खराब दिशा की तरफ बढ़ा दिया. बीएसपी नेता ने खुद मुख्यमंत्री के पास जाकर उनसे मिलने के बजाए जोर देकर कहा कि मुलायम गेस्ट हाउस में आकर उनसे मिलें. कांशीराम उस दौरान समाजवादी पार्टी के नेता को रिसेप्शन लॉबी में इंतजार कराते रहते थे, कभी-कभी आधे घंटे से ज्यादा. आखिरकार वह अस्त-व्यस्त हालत में, बनियान और लुंगी पहने, अपने गठबंधन सहयोगी से मिलते. यह सब अखबारों के संवाददाताओं और फोटोग्राफरों के सामने हो रहा था, जिसने मुख्यमंत्री की शर्मिंदगी को बढ़ा दिया था.
कहा जाता है कि उस दौरान बीएसपी के साथ बिगड़ते संबंधों और सरकार के भविष्य को भांपते हुए मुलायम पर्दे के पीछे से एक अलग ही प्लान बना रहे थे, 1995 के मध्य तक वह बीएसपी के करीब एक दर्जन विधायकों के संपर्क में थे, जिसमें कई शीर्ष नेता भी शामिल थे और वे इशारा मिलने पर पाला बदलने के लिए तैयार थे.
मुलायम को भरोसा था कि सार्वजनिक रूप से महात्मा गांधी की निंदा करने वाले नेताओं को मुख्यधारा की पार्टियों या मीडिया से बहुत कम समर्थन मिलेगा.
हालांकि, कांशीराम और बीजेपी के तब के सबसे मजबूत नेता अटल बिहारी वाजपेयी के बीच व्यक्तिगत केमिस्ट्री मुलायम सिंह की गणना के बाहर थी. उस वक्त बीजेपी नेतृत्व बीएसपी के साथ गठबंधन कर कांशीराम को नया मुख्यमंत्री बनाने के लिए तैयार था, लेकिन उनकी कमजोर शारीरिक स्थिति इस जिम्मेदारी को उठाने के अनुकूल नहीं थी.
मई के अंत तक कांशीराम के पास खबर पहुंची कि मुलायम सिंह बीएसपी को तोड़ने वाले हैं. कांशीराम ने मायावती को अपने अस्पताल बुलाया और अपनी योजनाओं के बारे में बताया.
जून के पहले दिन जब यह बात मुलायम सिंह के पास पहुंची कि मायावती ने उत्तर प्रदेश के राज्यपाल मोती लाल वोरा से मुलाकात की और बीजेपी के समर्थन से सरकार बनाने का दावा करते हुए उनकी सरकार से समर्थन वापस ले लिया, तो बताया जाता है कि वह गुस्से से भर गए, मायावती और कांशीराम के प्रति ही नहीं, बल्कि बीएसपी के खिलाफ अपनी योजना को लागू करने में देरी के लिए खुद के प्रति भी.
उधर, मायावती ने 2 जून की दोपहर को लखनऊ के स्टेट गेस्ट हाउस में बीएसपी विधायकों की एक बैठक बुलाई. राजनीतिक स्थिति पर चर्चा के लिए बुलाई गई यह बैठक स्टेट गेस्ट हाउस के कॉमन हॉल में हुई. बैठक खत्म होने के बाद, मायावती आगे की चर्चा के लिए पार्टी विधायकों के एक चुनिंदा समूह के साथ अपने सुइट में चली गईं. बाकी विधायक कॉमन हॉल में ही थे. शाम 4 बजे के कुछ ही देर बाद करीब 200 लोगों की भीड़ ने गेस्ट हाउस पर हमला कर दिया. कहा जाता है कि भीड़ में समाजवादी पार्टी के विधायक और समर्थक शामिल थे.
भीड़ में शामिल लोग बीएसपी विधायकों और उनके परिवारों को अपंग करने और मारने की धमकी देने वाले नारों के साथ-साथ ‘च$& पागल हो गए हैं, हमें उन्हें सबक सिखाना होगा’ जैसे जातिवादी नारे भी लगा रहे थे.
भीड़ को देखकर कॉमन हॉल में मौजूद विधायकों ने आनन-फानन में मुख्य दरवाजे को बंद कर दिया था, लेकिन उन्मादी भीड़ ने उसे तोड़ दिया. फिर इस भीड़ ने बीएसपी विधायकों के साथ मारपीट की.
अजय बोस ने लिखा है कि बीएसपी के कम से कम पांच विधायकों को गेस्ट हाउस से जबरन घसीटा गया और कारों में डाल दिया गया जो उन्हें मुख्यमंत्री आवास तक ले गईं. वहां उन्हें राज बहादुर के नेतृत्व वाले बीएसपी के बागी गुट में शामिल होने और मुलायम सिंह सरकार को समर्थन देने के लिए एक कागज के टुकड़े पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया. उनमें से कुछ इतने भयभीत थे कि उन्होंने बिंदीदार रेखा पर हस्ताक्षर कर दिए. देर रात तक विधायक वहीं कैद रहे.
उधर, दो पुलिस अधिकारियों, विजय भूषण, स्टेशन हाउस ऑफिसर (एसएचओ), हजरतगंज और सुभाष सिंह बधेल, एसएचओ, (वीआईपी) के साहस की वजह से मायावती सुरक्षित रहीं. ये दोनों अधिकारी कुछ कॉन्स्टेबलों के साथ काफी मुश्किल का सामना करते हुए भीड़ को थोड़ा पीछे हटाने में कामयाब रहे. हालांकि, इस बीच, गुस्साई भीड़ ने मायावती को सुइट से बाहर खींचने की धमकी देते हुए, नारेबाजी और गालियां देना जारी रखा.
लखनऊ के जिलाधिकारी राजीव खेर के आगमन के बाद व्यवस्था थोड़ी बहाल हुई, जिन्होंने भीड़ के खिलाफ कड़ा रुख दिखाया. एसपी सिटी राजीव रंजन वर्मा के साथ जिलाधिकारी ने सबसे पहले भीड़ के उन सदस्यों को गेस्ट हाउस बिल्डिंग से बाहर धकेला, जो विधायक नहीं थे.
देर शाम तक गेस्ट हाउस के अंदर की स्थिति धीरे-धीरे सामान्य होने लगी क्योंकि राज्यपाल कार्यालय, केंद्र सरकार और बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं के दखल के बाद बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों को मौके पर भेज दिया गया.
इस घटना की कड़वी यादों के बाद मायावती ने तब इतिहास बनाया, जब वह उत्तर प्रदेश की पहली दलित मुख्यमंत्री बनीं. उनकी इस सरकार को बीजेपी ने बाहर से समर्थन दिया था.
अब फिर से लौट आते हैं, मौजूदा वक्त पर, जब समाजवादी पार्टी का नारा है- ‘नई हवा है, नई सपा है’. जिस समाजवादी पार्टी का अब से पहले मुस्लिम-यादव गठजोड़ पर खास जोर दिखता था, वो अब दलितों को भी अपनी तरफ खींचने की पुरजोर कोशिश में नजर आ रही है. दरअसल, एसपी की लड़ाई अब मुख्य तौर पर जिस बीजेपी से है, वो 2014 के लोकसभा चुनाव से ही विपक्षी दलों के बहुसंख्यक कोर ‘वोट बैंक’ को हिंदुत्व की छतरी के नीचे लाकर उसमें सेंधमारी करने में सफल रही है. ऐसे में एसपी को अच्छी तरह से पता होगा कि बीजेपी को मात देने के लिए उसे समाज के ज्यादा से ज्यादा वर्गों का समर्थन हासिल करना होगा.
मगर कुछ सवाल अभी भी बरकरार हैं, जिनका जवाब 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद ही मिलेगा. मसलन, 1995 के ‘गेस्ट हाउस कांड’ में जिस समाजवादी पार्टी के समर्थकों पर दलित को लेकर जातिसूचक नारेबाजी करने के आरोप लगे थे, जिस तरह इस घटना के बाद यादवों और दलितों को विरोधी खेमे में देखा जाने लगा, क्या समाजवादी पार्टी उन सब बातों को पीछे छोड़कर जमीन पर दलित-यादव गठजोड़ करा पाएगी? क्या दलित वर्ग उसकी अस्मिता की आवाज उठाने का दावा करने वाली मायावती का साथ छोड़कर ‘नई हवा है, नई सपा है’ नारे पर भरोसा कर पाएगा?
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