ओबीसी वोट बैंक के इर्द-गिर्द घूमने लगी यूपी की राजनीति! आंकड़ों की जुबानी देखिए बड़ी कहानी

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Uttar Pradesh News: समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और उत्तर प्रदेश के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य के बीच जुबानी जंग किसी से छिपी नहीं है. पिछले दिनों केशव मौर्य ने सपा अध्यक्ष पर ये तक आरोप लगा दिया था कि वो उनकी हत्या करवा सकते हैं, जिस पर अखिलेश यादव ने भी पलटवार किया. केशव प्रसाद मौर्य के सवालों का जवाब  और उन्हें 100 विधायकों वाला ऑफर देने में अखिलेश यादव जरा भी देर नहीं लगाते. केशव प्रसाद मौर्य का जिक्र अखिलेश यादव के बयानों में जितना ज्यादा दिखता है, उतना और किसी भी भाजपा नेता का जिक्र नहीं दिखता.

सपा की सोची समझी रणनीति

अखिलेश यादव और केशव प्रसाद मौर्य के बीच अक्सर देखी जाने वाली जुबानी जंग एक सामन्य राजनीतिक प्रक्रिया है या सपा की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा, जो आने वाले दिनों में उसका राजनीतिक हथियार बनने वाला है. साल 2016 में उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव यानि सपा की सरकार थी. अगले साल  2017 में विधानसभा का चुनाव होने वाला था. विधानसभा चुनाव से पहले कभी 2014 में फूलपुर से सांसद बनने वाले केशव प्रसाद मौर्य को यूपी बीजेपी का अध्यक्ष बनाया गया. केशव मौर्य ने पिछड़ों जातियों को भाजपा की तरफ लामबंद किया और 2017 विधानसभा चुनाव में भाजपा को प्रदेश में बंपर जीत हासिल हुई थी.

केशव प्रसाद मौर्य के बहाने साधा जा रहा निशाना

भाजपा की जीत के बाद केशव मौर्य के मुख्यमंत्री बनने की चर्चा भी काफी जोरों पर रही. मगर बाद में केशव मौर्य उप मुख्यमंत्री और पीडब्लयूडी मंत्री बने. गोरखपुर से सांसद योगी आदित्यनाथ को यूपी का मुख्यमंत्री बनाया गया. वहीं 2022 के विधानसभा चुनाव में फिर से भाजपा की जीत हुई पर केशव प्रसाद मौर्य को सिराथु विधानसभा से हार का सामना करना पड़ा. हांलाकि दोबारा सत्ता में आई योगी सरकार में केशव प्रसाद मौर्य को उपमुख्यमंत्री बनाया गया पर उनका विभाग बदल दिया गया. इस बार उनको ग्राम विकास एवं समग्र विकास, ग्रामीण अभियंत्रण विभाग का प्रभार दिया गया है. जबकि पिछली बार मौर्य के पास यूपी सरकार का भारी भरकम लोक निर्माण विभाग (PWD) था.

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दोबारा सत्ता में आने वाली योगी सरकार में केशव प्रसाद मौर्य को महत्वपूर्ण विभाग ना दिए जाने पर इस बात की चर्चा होने लगी कि मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के बीच सब कुछ ठीक नहीं है. हांलाकि सरकार बनने के कुछ दिनों केशव प्रसाद मौर्य ने एक ट्वीट किया जिसके कई राजनीतिक मायने निकलने लगे. उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा, “संगठन सरकार से बड़ा है.” केशव प्रसाद मौर्य को एक समय भाजपा में बड़े ओबीसी नेता के तौर पर देखा जाता रहा है. वहीं अखिलेश यादव का केशव प्रसाद को लेकर किए जाने वाले हमले कहीं न कहीं यूपी में ओबीसी राजनीति का खाका खींचने के तरफ बढ़ रहे हैं

यूपी में ओबीसी राजनीति की गणित

दरअसल, उत्तर प्रदेश की सियासत ओबीसी समुदाय के इर्द-गिर्द घूमती दिख रही है. सूबे की सभी पार्टियां ओबीसी को केंद्र में रखते हुए अपनी राजनीति एजेंडा सेट कर रही हैं. यूपी में सबसे बड़ा वोटबैंक पिछड़ा वर्ग का है. सूबे में 52 फीसदी पिछड़े वर्ग की आबादी है, जिसमें 43 फीसदी गैर-यादव यानि जातियों को अतिपिछड़े वर्ग के तौर पर माना जाता है. ओबीसी की 79 जातियां हैं, जिनमें सबसे ज्यादा यादव और दूसरे नंबर कुर्मी समुदाय की है.

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लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वे के मुताबिक पिछले एक दशक में बीजेपी ने ओबीसी वोटरों में जबरदस्त पैठ बनाई है. 2014 में बीजेपी को 34 फीसदी ओबीसी वोट मिले और 2019 में 44 फीसदी ओबीसी ने बीजेपी को वोट दिया. 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में सपा और बाकी क्षेत्रीय दल सिर्फ 27 फीसदी वोट पा सके. वहीं 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में केवल 10 फीसदी यादव मतदाताओं ने, 57 फीसदी कोइरी-कुर्मी मतदाताओं और 61 फीसदी अन्य ओबीसी मतदाताओं ने बीजेपी और उसके सहयोगी दलों को वोट किया था. अगर सीटों की बात करें तो 2022 विधानसभा चुनाव में बीजेपी और उसके सहयोगी दलों ने 315 सीटें हासिल की तो वहीं 2019 लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 65 सीटें हासिल की थी.

2014 के बाद से वोट के इस गणित में बदलाव आया. चुनाव यूपी का हो या केंद्र का, पिछड़ा वोट बहुतायत में बीजेपी के पास एकमुश्त आने लगा. ओबीसी वोट पर पहले क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व रहा था. वहीं यूपी में एक बार फिर राजनीति ओबीसी वोटो के आस पास घुमता नजर आने लगा है.

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