कल्याण सिंह का वो राजनीतिक दांव, जिसका फायदा आज भी BJP को मिल रहा है!
राजनीतिक गलियारों में एक कहावत काफी प्रचलित है कि अगर दिल्ली जाना है, तो उसका रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है. आज के समय…
ADVERTISEMENT
राजनीतिक गलियारों में एक कहावत काफी प्रचलित है कि अगर दिल्ली जाना है, तो उसका रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है. आज के समय…
राजनीतिक गलियारों में एक कहावत काफी प्रचलित है कि अगर दिल्ली जाना है, तो उसका रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है. आज के समय में दिल्ली की सत्ता पर सवार बीजेपी को उत्तर प्रदेश में अपनी अगुवाई वाली पहली सरकार बनाने के लिए साल 1991 तक का इंतजार करना पड़ा था. उस सरकार में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने थे. कहा जाता है कि इस दौरान ही बीजेपी की उस ठोस नींव की बुनियाद रखी गई, जो आगे चलकर उसे देश की राजनीति में शीर्ष पर पहुंचाने में कामयाब हुई.
ADVERTISEMENT
दरअसल, जब कल्याण सिंह ने अपनी राजनीति की शुरुआत की, तब प्रदेश में कांग्रेस का वर्चस्व था. मुख्यमंत्री कोई भी हो, लेकिन पार्टी कांग्रेस ही हुआ करती थी. कांग्रेस को पहली टक्कर दी चौधरी चरण सिंह ने. यहीं से मुलायम सिंह और कल्याण सिंह जैसे नेताओं ने अलग-अलग स्कूल की पॉलिटिक्स शुरू की.
साल 1977 में जब जनता दल की सरकार बनी थी, तब कल्याण सिंह राज्य मंत्री बने थे. इस दौरान उन्होंने यूपी में करीब 3-4 फीसदी संख्या वाली लोध जाति को जनसंघ से जोड़ने में सफलता हासिल की. कहा जाता है कि यहीं से एक फॉर्मूला निकला, जिसे सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूला कहा जाता है.
वीपी सिंह के मंडल कमीशन वाले फैसले के बाद पूरे देश मंडल-कमंडल की राजनीति शुरू हो गई. इस दौरान बीजेपी में दिग्गज नेता रहे गोविंदाचार्य ने मंडल के खिलाफ सोशल इंजीनियरिंग का मंत्र दिया. इसी मंत्र के तहत यूपी में कल्याण सिंह और मध्य प्रदेश में उमा भारती को आगे बढ़ाया गया. इससे पहले जो बीजेपी ‘सवर्णों’ की पार्टी कही जाती थी, उसके साथ पिछड़े वर्ग का बड़ा तबका जुड़ गया.
दरअसल, इसमें कल्याण की छवि काफी महत्वपूर्ण थी. पहली बात ये थी कि वह फायर ब्रांड हिंदू ब्रिगेड के नेता थे. दूसरा वो बीजेपी में ओबीसी के सबसे बड़े नेता थे. मगर जब कल्याण बाबू ने बीजेपी का साथ छोड़ा, तब वो अपने साथ ये भी फॉर्मूला भी समेट ले गए.
यह भी पढ़ें...
ADVERTISEMENT
साल 2014 में यूपी की राजनीति में बीजेपी ने लंबे इंतजार के बाद दमदार वापसी की. लोकसभा की 80 सीटों में से 71 सीटें बीजेपी की खाते में गईं. इसके अलावा 2 सीटें उसके सहयोगी अपना दल ने जीती. इस जीत के पीछे भी वही फॉर्मूला था, जो कल्याण सिंह की जीत में था. दरअसल, इस बार चेहरा थे नरेंद्र मोदी. उन्होंने खुद को ओबोसी जाति के नेता के तौर पर प्रोजेक्ट किया. बतौर गुजरात मुख्यमंत्री पहले से उनकी एक हिंदू फायर ब्रांड छवि थी. यहीं, नहीं उस समय उत्तर प्रदेश के बीजेपी प्रभारी अमित शाह ने 90 के दशक के सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले को अपना सबसे तेज हथियार बनाया था.
जब BJP में तेजी से सिमटा था कल्याण का सियासी कद, अटल से उनके ‘टकराव’ की कहानी
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT