बांग्लादेश में हिंदू युवक दीपू दास की अमानवीय हत्या ने पूरी दुनिया को झकझोर कर रख दिया है. लेकिन उत्तर प्रदेश के बागपत में एक युवक द्वारा दीपू दास जैसा हाल करने की धमकी देना न केवल कानून-व्यवस्था के लिए चुनौती है, बल्कि एक गहरी और खतरनाक विचारधारा की ओर इशारा करता है. आखिर उत्तर प्रदेश जैसे शांत प्रदेश में जहां अपराधियों के खिलाफ कड़ा अभियान चल रहा है, एक युवक के मन में इतनी नफरत और बेखौफी कहां से आई?
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क्या है पूरा मामला?
हाल ही में सोशल मीडिया पर बागपत के एक मुस्लिम युवक रेहान का वीडियो वायरल हुआ. इस वीडियो में उसने इंस्टाग्राम पर आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करते हुए हिंदुओं को चेतावनी दी कि यदि वे नहीं संभले, तो उनका हाल भी बांग्लादेश के 'दीपू दास' जैसा किया जाएगा. बांग्लादेश में कट्टरपंथी भीड़ ने दीपू दास की निर्मम हत्या कर उसके शव को सरेआम जला दिया था. यूपी पुलिस ने मामले की गंभीरता को देखते हुए तुरंत कार्रवाई की और आरोपी युवक को गिरफ्तार कर लिया है. लेकिन सवाल गिरफ्तारी से कहीं बड़ा है कि यह 'मानसिकता' पनप कहां रही है?
इस कट्टर सोच को शक्ति कहां से मिलती है?
उत्तर प्रदेश में वर्तमान में सामाजिक सौहार्द्र बना हुआ है फिर भी एक युवक को यह विश्वास कहां से मिलता है कि वह बहुसंख्यक समाज को ऐसी धमकी दे सके? इसके पीछे कुछ संभावित कारण और विचारधाराएं हो सकती हैं:
- तुष्टिकरण का इतिहास: क्या उसे लगता है कि कोई राजनीतिक विचारधारा उसे बचा लेगी?
- चुप्पी का समर्थन: बांग्लादेश में हिंदुओं पर हुए अत्याचारों पर जिस तरह से कुछ विचारधाराओं ने चुप्पी साधी, क्या उसने इस युवक के हौसले बढ़ाए?
- वोटबैंक की राजनीति: घुसपैठ और कट्टरपंथ पर नरम रुख अपनाने वाली राजनीति अक्सर ऐसे तत्वों को सुरक्षा कवच का अहसास कराती है.
जब सरकार ने 'आतंकियों' से मुकदमे वापस लेने की कोशिश की
इस कट्टरपंथी सोच के पीछे की 'शिल्पकार' विचारधारा को समझने के लिए हमें साल 2012-2013 के कालखंड में जाना होगा. उस समय की तत्कालीन यूपी सरकार ने एक विवादित फैसला लिया था. सरकार 'निर्दोष मुस्लिम युवाओं' के नाम पर आतंकवाद के संगीन आरोपों वाले मामले वापस लेना चाहती थी. इस कदम पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जो टिप्पणी की थी, वह आज भी प्रासंगिक है. कोर्ट ने कड़ी फटकार लगाते हुए पूछा था कि आज आप इनके खिलाफ केस वापस ले रहे हैं, कल क्या आप इन्हें 'पद्म भूषण' से नवाजेंगे?
कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि सरकार यह तय नहीं कर सकती कि कौन आतंकवादी है और कौन नहीं. यह काम केवल न्यायपालिका का है. अंततः 12 दिसंबर 2013 को हाईकोर्ट की तीन जजों की बेंच ने इस असंवैधानिक कोशिश पर रोक लगा दी.
निर्दोष बताए गए आरोपी निकले खूंखार आतंकी
हैरानी की बात यह है कि तत्कालीन सरकार जिन लोगों को बचाना चाहती थी, वे कोई सामान्य अपराधी नहीं थे. उनमें से कई 2006 के वाराणसी संकट मोचन मंदिर हमले जैसे जघन्य कांड के साजिशकर्ता थे. वाराणसी हमले के मास्टरमाइंड वलीउल्लाह को बाद में कोर्ट ने मृत्युदंड (फांसी) की सजा सुनाई. अन्य कई आरोपियों को आजीवन कारावास मिला. सोचिए, अगर उस समय न्यायपालिका ने कड़ा रुख न अपनाया होता, तो ये आतंकी आज सड़कों पर खुलेआम घूम रहे होते. शायद यही वह 'संरक्षण वाली याद' है जो आज के युवाओं को सोशल मीडिया पर नफरत फैलाने की शक्ति देती है.
विचारधारा का दोहरा मापदंड
बागपत के युवक को शायद यह यकीन है कि वही विचारधारा उसका बचाव करेगी जो कारसेवकों पर गोली चलवा सकती है. संवैधानिक प्रक्रियाओं (जैसे SIR) का विरोध करती है. देश की सीमाओं में घुसपैठियों के आने पर मौन रहती है, ताकि वोटबैंक सुरक्षित रहे.
अब बदल चुका है उत्तर प्रदेश
हालांकि, नफरती वीडियो पोस्ट करने वाला युवक एक बुनियादी बदलाव को भूल गया. उत्तर प्रदेश में अब वह विचारधारा सत्ता में नहीं है जो तुष्टिकरण को प्राथमिकता देती थी. वर्तमान सरकार का रुख स्पष्ट है 'जीरो टॉलरेंस'. अब राज्य में धर्म के आधार पर पक्षपात नहीं, बल्कि संविधान का राज है. आतंकी गतिविधियों और सांप्रदायिक नफरत फैलाने वालों के लिए अब कोई 'सुरक्षित गलियारा' नहीं बचा है. न्याय की चक्की चल रही है, और बागपत की त्वरित गिरफ्तारी इसी का प्रमाण है.
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