यूपी की सियासत में बाहुबलियों की कमजोर होती नब्ज, कभी कायम था रसूख अब टिकट मिलना मुश्किल
एक जमाना था जब बाहुबल के बिना उत्तर प्रदेश में राजनीति करना और सत्ता में आना नामुमकिन सा था. लेकिन दौर बदला और वक्त के साथ चुनावी समीकरण भी बदलते चले गए.
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Uttar Pradesh News : एक जमाना था जब बाहुबल के बिना उत्तर प्रदेश में राजनीति करना और सत्ता में आना नामुमकिन सा था. लेकिन दौर बदला और वक्त के साथ चुनावी समीकरण भी बदलते चले गए. कुछ दल जो बाहुबल के नाम पर सरकारें बनाते थे, वो दल भी खुद को उनसे अलग करते दिखे. वहीं कुछ दल ऐसे भी आए जिन्होंने अपना चुनावी एजेंडा ही माफियाओं के खिलाफ कारवाई पर रखा.
कम हुआ बाहुबलियों का दबदबा
एक बार फिर लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है और नजरें हैं 80 लोकसभा सीटें लिए दिल्ली का रास्ते तय कराने वाले उत्तर प्रदेश पर. 2019 के मुकाबले यूपी के कई समीकरण अब बदल चुके हैं, इनमें से एक है बाहुबल. एक तरफ योगी सरकार ने अपराध और माफिया के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति की बात कही है. वहीं सपा मुखिया अखिलेश यादव खुद को 2012 में सरकार बनने के बाद और सरकार जाने के बाद भी खुद और पार्टी को माफियाओं से अलग रखते आए हैं. इसके साथ ही पार्टी की साफ सुथरी छवि की कोशिश में लगे हैं. हालांकि, सपा बाहुबलियों के परिवार को टिकट देती रही है.
धनंजय सिंह का पत्ता साफ
बात अगर बाहुबलियों की हो तो एनडीए के घटक दल जेडीयू से टिकट की आस लगाने वाले बाहुबली धनंजय सिंह का जिक्र सबसे पहले होगा. धनंजय सिंह जेडीयू के टिकट पर जौनपुर से लड़ने की तैयारी में थे. लेकिन भाजपा ने महाराष्ट्र के पूर्व गृह राज्य मंत्री और पूर्व कांग्रेसी कृपाशंकर सिंह को टिकट देकर कयासों पर विराम लगा दिया, और उनकी उम्मीदों को तोड़ दिया. हालांकि, भाजपा की टिकट की घोषणा के कुछ देर बाद ही सोशल मीडिया पर जौनपुर से चुनाव लड़ने की पोस्ट धनंजय ने सोशल मीडिया पर डाली. लेकिन तीन दिन बाद ही अपहरण के मामले में धनंजय को सजा हो गई और उनका 2024 लोकसभा चुनाव लड़ने का सपना, सपना ही रह गया. हालांकि, इस बात की चर्चा जौनपुर के गलियारों में है कि धनंजय सिंह अपनी पत्नी श्रीकला रेड्डी को जौनपुर से उतार सकते हैं.
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हालांकि, धनंजय सिंह 2009 के बाद सियासी पिच पर कुछ खास बैटिंग नहीं कर पाए. वह 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद से जीत हासिल नहीं का पाए हैं. 2009 में वह बसपा के टिकट पर सांसद बने थे. इसके बाद 2017 और 2022 के विधान सभा चुनावों में उन्हें हार झेलनी पड़ी. हालांकि, धनंजय की दूसरी पत्नी श्रीकला ने 2021 में पंचायत अध्यक्ष के पद पर जीत हासिल की.
अंसारी परिवार भी मुश्किल में
सियासत में अगर बाहुबलियों का जिक्र होगा तो मुख्तार अंसारी का जिक्र होना लाजमी है. माफिया मुख्तार अंसारी के बड़े भाई अफजाल अंसारी इस बार समाजवादी पार्टी के टिकट पर गाजीपुर से चुनाव लड़ रहे हैं. इससे पहले वह बीएसपी के टिकट पर गाजीपुर से जीते थे. हालांकि, मुख्तार एंड गैंग के खिलाफ हो रही कार्रवाइयों के बीच चुनाव में अफजाल को इसका फायदा मिलेगा या नुकसान यह वक्त बताएगा. वहीं सपा के पूर्व नेता डीपी यादव का नाम भी बाहुबलियों की लिस्ट में शुमार है. बदायूं से पश्चिमी यूपी के बाहुबली डीपी यादव की दावेदारी की चर्चा भी हो रही है. वह बीजेपी के टिकट पर खुद या अपने परिवारजन को लड़वाने की तैयारी में है.
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बता दें कि कैसरगंज सीट से बाहुबली बृजभूषण सिंह की दावेदारी को लेकर असमंजस की स्थिति है. माना जा रहा है कि उनका टिकट कटना लगभग तय है और ऐसे में अगर उनका टिकट कटा तो परिवार से ही दावेदारी आने की प्रबल संभावना है.
खत्म हुआ अतीक का दबदबा
आज के प्रयागराज और तब के इलाहाबाद में माफिया अतीक अहमद और परिवार ने भी कई सियासी पारियां खेली हैं. हालांकि, माफिया अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की मौत के बाद अब उसके परिवार से चुनावी दावेदारी आना मुश्किल है. क्योंकि अतीक की पत्नी शाइस्ता उमेश पाल और दो सिपाहियों की हत्या में वांटेड है. तो वहीं दो बेटे उमर और अली जेल में हैं और भाई अशरफ की पत्नी फातिमा भी अंडरग्राउंड है.
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बाहुबली अमरमणि त्रिपाठी के बेटे अमन मणि त्रिपाठी ने हाल ही में कांग्रेस की सदस्यता ली है और इसके पीछे है टिकट मिलने की चाहत. टिकट मिलेगा या नहीं इस पर अभी भी संशय बरकरार है. तो वहीं ईडी की कार्रवाई में घिरे बाहुबली हरिशंकर तिवारी के बेटे विनय शंकर तिवारी अपने पिता के निधन के बाद श्रावस्ती या संत कबीर नगर से समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने के प्रयास में हैं.
जब कायम था राजनीतिक रसूख
वरिष्ठ पत्रकार नवल कांत सिन्हा कहते हैं कि पिछले तीन दशकों से देखिए तो यूपी में पहले जो बाहुबली होते थे वह नेताओं को चुनाव लड़वाते थे. लेकिन उसके बाद अपराधियों को लगने लगा जब वह नेताओं को जिता सकते हैं तो खुद चुनाव क्यों नही लड़ सकते. इसके बाद एक दौर आया और राजनीति में बाहुबलियों की भीड़ हो गई और उनका रसूख भी कायम रहा. तमाम सरकारें आती रहीं जाती रहीं लेकिन मुख्तार और अतीक जैसे बाहुबलियों का रसूख कम नही हुआ. लेकिन पिछले 7 सालों में हुई कारवाई में अपराधियों को जेल भेजने से लेकर उन्हें सजा दिलाने तक का प्रयास सरकार द्वारा किया गया. उसका असर यह है की अब चुनावों में बाहुबलियों का क्रेज खत्म हो रहा है और देश में थोड़ी पॉलिटिक्स भी बदली है. बाहुबलियों को भी लगने लगा है कि राजनीति में अगर आपराधिक छवि लेकर जाते हैं तो अब आसान रास्ता नहीं है. ऐसे में अब देखना दिलचस्प होगा कि 2024 के चुनाव में यह बाहुबली फैक्टर यूपी में कितना चल पाता है.
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