क्या है उत्तर प्रदेश सरकार की विद्युत निजीकरण की योजना? जिसका हो रहा विरोध

प्रदेश सरकार ने पूर्वांचल और दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगमों के तहत आने वाले 42 जिलों में बिजली आपूर्ति को निजी हाथों में देने की प्रक्रिया शुरू कर दी है.

प्रतीकात्मक फोटो.

अक्षय शर्मा

• 03:46 PM • 28 May 2025

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प्रदेश सरकार ने पूर्वांचल और दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगमों के तहत आने वाले 42 जिलों में बिजली आपूर्ति को निजी हाथों में देने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. यह प्रक्रिया पीपीपी यानी पब्लिक-प्राइवेट पार्टनर्शिप (Public-Private Partnership) मॉडल के तहत चल रही है, जिसमें निजी कंपनियां वितरण का जिम्मा संभालेंगी जबकि अधोसंरचना सरकार के पास ही रहेंगी. 

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निजीकरण की निविदा प्रक्रिया को एनर्जी टास्क फोर्स की मंजूरी मिल चुकी है. अब यह उत्तर प्रदेश विद्युत नियामक आयोग (UPERC) के पास अंतिम स्वीकृति हेतु भेजी गई है. एनर्जी टास्क फोर्स सरकार द्वारा गठित एक उच्च स्तरीय समिति है, जिसका उद्देश्य राज्य में ऊर्जा क्षेत्र (बिजली उत्पादन, पारेषण और वितरण) से जुड़े नीतिगत फैसलों को तेजी, पारदर्शिता और तकनीकी दृष्टिकोण से लागू करवाना है. इस टास्क फोर्स की स्थापना ऊर्जा क्षेत्र मे सुधार हेतु की गई थी.

प्रभावित होने वाले जिले

इस योजना के तहत वाराणसी, प्रयागराज, गोरखपुर, कानपुर, झांसी, आगरा, इटावा आदि प्रमुख जिलों को शामिल किया गया है. इनके निजीकरण की प्रक्रिया पर सरकार काम कर रही है.

निजीकरण का प्रथम प्रयोग उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में किया गया था. साल 2010 में टोरेंट पावर एलटीडी. को विद्युत वितरण की ज़िम्मेदारी दी गई थी. इसे फ्रेंचाइज़ी मॉडल में लागू किया गया था, जहां टोरेंट पावर ने बिलिंग,रखरखाव, कलेक्शन और वितरण का कार्य संभाला हुआ है. विद्युत वितरण के मामले में आगरा की गिनती उत्तर प्रदेश के बेहतर जिलो में  होती है. यहां बिना किसी बाढ़ के विद्युत आपूर्ति हो रही है. हालांकि कई मामलों में बिजली की कीमतों को लेकर उपभोक्ताओं में  नाराजगी भी देखने को मिलती है. आगरा में ना के बराबर बिजली चोरी की  घटनाए पाई जाती हैं जिससे सरकार के राजस्व में बढ़ोतरी हुई है और आगरा में बेहतर बिजली व्यवस्था की मिसाल कायम हुई है.


विद्युत कर्मचारी संगठन क्यों कर रहे हैं निजीकरण का विरोध

प्रदेशभर के बिजली कर्मचारियों ने निजीकरण के विरोध में हड़ताल की चेतावनी दी थी. संघर्ष समिति ने 29 मई से अनिश्चितकालीन कार्य बहिष्कार की घोषणा की थी, जिसे फिलहाल स्थगित किया गया है. उनका कहना है कि,यह योजना कर्मचारियों के हितों पर सीधा प्रहार है और सेवा शर्तें व भविष्य दोनों खतरे में डालती है."

1. नौकरी की सुरक्षा का खतरा

निजी कंपनियां लाभ कमाने पर ध्यान देती हैं ना कि कर्मचारियों के कल्याण पर. कर्मचारियों को डर है कि निजीकरण के बाद उन्हें या तो निकाल दिया जाएगा, या कॉन्ट्रेक्ट बेसिस पर रखा जाएगा जिससे उनकी स्थायी नौकरी चली जाएगी.  संघर्ष समिति के सदस्य का कहना है कि "हम वर्षों से बिजली व्यवस्था संभाल रहे हैं. निजी कंपनी आई तो पहले हम ही बाहर होंगे."  

2. सेवा शर्तों में बदलाव का डर

कर्मचारियों को आशंका है कि उनके भत्ते, वेतन, पेंशन और प्रमोशन जैसे लाभ खत्म हो सकते हैं या बदल दिए जाएंगे. सरकारी सेवा नियमों की जगह निजी नियम लागू होंगे जिससे कर्मचारियों के अधिकार कमजोर हो सकते हैं.

3. VRS (स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति) का दबाव

सरकार द्वारा दिया गया VRS (Voluntary Retirement Scheme) एक विकल्प है. लेकिन कर्मचारियों का कहना है कि यह "दबाव में जबरन रिटायरमेंट" जैसा है. बहुत से कर्मचारियों की उम्र 50 वर्ष से ऊपर है,और उन्हें भविष्य की आर्थिक असुरक्षा सता रही है.

4. ट्रांसफर/पोस्टिंग में मनमानी की आशंका

निजीकरण के बाद कर्मचारियों को किसी भी जिले या स्थान पर स्थानांतरित किया जा सकता है.

5. सेवा की गुणवत्ता और उपभोक्ताओं की सुरक्षा को लेकर चिंता

कर्मचारियों का मानना है कि निजी कंपनियां मुनाफे के लिए काम करती हैं, उपभोक्ता सुविधा के लिए नहीं. वे आशंका जताते हैं कि उपभोक्ताओं को महंगी बिजली, तेजी से कटौती, और शिकायतों का अनदेखा झेलना पड़ेगा – जैसा कुछ हद तक आगरा मॉडल में देखने को मिला. इसके लिए कोई पारदर्शी नीति नहीं दी गई है, जिससे भविष्य अनिश्चित हो जाता है.

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