कर्नाटक में जेडीएस का वैसा ही हाल, जैसा यूपी में जनता ने किया BSP के साथ, समझिए सियासी अंकगणित

अमिताभ तिवारी

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UP Political News: कर्नाटक चुनाव के नतीजे सबके सामने हैं. कांग्रेस ने राज्य में प्रचंड बहुमत हासिल कर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सत्ता से बेदखल कर दिया है. इन सबके बीच कर्नाटक में जनता दल (सेकुलर) के प्रदर्शन की चर्चा तेज है. दरअसल, जेडी (एस) ने पिछली बार के मुकाबले इस बार खराब प्रदर्शन किया है. पिछली बार की तुलना में इस बार जेडी (एस) के वोट शेयर और सीटों गिरावट दर्ज की गई है. वहीं, चुनावी पंडितों ने जेडी (एस) के प्रदर्शन की तुलना उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी से की है. आपको बता दें कि मायावती के नेतृत्व वाली बसपा का भी प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहा है. कभी प्रदेश में राज करने वाली बसपा को 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में मात्र एक सीट पर जीत हासिल हुई थी. साथ ही बसपा के वोट शेयर में भी भारी गिरावट दर्ज की गई थी. रिपोर्ट में आगे जानिए कर्नाटक की जेडी (एस) और यूपी की बसपा किन मामलों में एक समान हैं.

जेडी (एस) ने कर्नाटक में पिछले पांच चुनावों में अपना दूसरा सबसे खराब प्रदर्शन दर्ज किया है. किंगमेकर के रूप में उभरने की पार्टी की उम्मीदों पर कांग्रेस पार्टी की शानदार जीत ने पानी फेर दिया है. इस बार जेडी (एस) सिर्फ 19 सीटें जीत सकी है, जो 2018 की उसकी 37 सीटों का आधा है. इस बार जेडी (एस) ने केवल 13.3 प्रतिशत वोट शेयर दर्ज किया है. वहीं, जेडी (एस) का 2004 में 20.8 प्रतिशत वोट शेयर था, जिसमें भारी गिरावट आई है. आपको बता दें कि जेडी (एस) की स्थिति उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के समान दिख रही है. दरअसल, बसपा का वोटशेयर 2002 में 23.1 प्रतिशत से घटकर 2022 में 12.9 प्रतिशत हो गया. बसपा द्वारा जीती गई सीटों का प्रतिशत इसी अवधि में 24.3 प्रतिशत से घटकर 0.2 प्रतिशत तक सिमट गया. 2017 में 19 सीटें जीतने वाली बसपा 2022 में महज एक सीट ही जीत सकी थी.

क्रेडिट: इंडिया टुडे डीआईयू

नेतृत्व पर खड़े हो रहे सवाल

जेडी (एस) और बसपा क्रमशः गौड़ा और मायावती के नेतृत्व में परिवार द्वारा नियंत्रित हैं. दोनों बड़े पैमाने पर एक विशेष जाति या समुदाय, वोक्कालिगा और दलितों का प्रतिनिधित्व करते हैं. हालांकि, जेडी (एस) के विपरीत, बसपा ने अपने सुनहरे दिनों में पूरे राज्य में उपस्थिति दर्ज की थी, जबकि गौड़ा के नेतृत्व वाली पार्टी मुख्य रूप से राज्य में केवल एक क्षेत्र तक ही सीमित है.

बसपा और जेडी (एस) उत्तर प्रदेश और कर्नाटक की राजनीति में त्रिकोणीय मुकाबले की स्थिति में फले-फूले हैं. 1990 के दशक से 2017 के चुनावों से पहले तक बसपा किंगमेकर थी, जिसने सभी मुख्य पार्टियों- समाजवादी पार्टी, भाजपा और कांग्रेस के साथ सरकारें बनाईं और/या गठबंधन किया. सिर्फ मैदान में होने से बसपा को दलितों के अपने मूल आधार में अन्य अल्पसंख्यकों, ओबीसी और उच्च जाति के मतदाताओं के एक वर्ग को जोड़ने में मदद मिली है.

वहीं, अपने गठन के बाद से जेडी (एस) ने इसी तरह कांग्रेस और भाजपा दोनों के साथ मिलकर सरकारें बनाई हैं. पार्टी औसतन 30 से 40 सीटें जीतती थी और किंगमेकर की भूमिका निभाते हुए 2004 और 2018 के बीच चार चुनावों में तीन बार त्रिशंकु विधानसभा के लिए मजबूर किया. वोक्कालिगा, एक प्रभावशाली समुदाय होने के नाते, अल्पसंख्यकों और दलितों के एक वर्ग को जेडी (एस) की ओर खींचने में भी सक्षम रहा है.

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जेडी (एस) और बसपा के साथ क्या गलत हुआ?

वोक्कालिगा वोट और ओल्ड मैसूरु क्षेत्र पर जेडी (एस) की अत्यधिक निर्भरता ने इसे राज्यवार उपस्थिति हासिल करने से रोक दिया है. लेखक की गणना के अनुसार, जेडी (एस) के प्रत्येक 10 मतदाताओं में से चार वोक्कालिगा हैं और आज बसपा के प्रत्येक 10 मतदाताओं में से आठ दलित हैं.

परिवार के नियंत्रण के कारण पिछले कुछ वर्षों में नेताओं का पलायन हुआ है (कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया सहित), इस प्रकार पार्टी कमजोर हुई है. वहीं, बीजेपी और कांग्रेस दोनों के साथ लगातार उतार-चढ़ाव और मेलजोल ने इसकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाया है. ऐसा लगता है कि पार्टी के कांग्रेस की “बी-टीम” होने का आरोप मतदाताओं के एक वर्ग के साथ मेल खाता है. तथ्य यह है कि जेडी (एस) के अच्छा प्रदर्शन से अस्थिरता पैदा हो सकती है. इनमें से ज्यादातर कारण बसपा के भी बताए जा सकते हैं.

हालांकि, दोनों पार्टियों को सबसे बड़ा झटका इस बात से लगा है कि कर्नाटक और यूपी में मुकाबला तेजी से बाइपोलर हो गया है. न तो जेडी (एस) और न ही बसपा, भाजपा विरोधी मतदाताओं में विश्वास जगा सकी है. कांग्रेस और सपा अपने-अपने राज्यों में मुख्य चुनौती बनकर उभरी हैं.

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इस प्रकार अल्पसंख्यकों, दलितों और अगड़ी जातियों का एक वर्ग जेडी (एस) से दूर कांग्रेस में चला गया है. यहां तक ​​कि वोक्कालिगा (लगभग आठ प्रतिशत) का एक वर्ग कांग्रेस में स्थानांतरित हो गया क्योंकि उन्होंने डीके शिवकुमार में एक मुख्यमंत्री की उम्मीद देखी है. इसी तरह, यूपी में, अल्पसंख्यक, ओबीसी और गैर-जाटव दलित क्रमशः बसपा से सपा और भाजपा में चले गए हैं.

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