लेटे हनुमान जी और अकबर की कहानी, सम्राट ने बाघंबरी मठ को भेंट की जागीर, जो बनी झंझट की जड़

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बात 1582 की है. तब प्रयागराज में बादशाह अकबर किला बनाना चाहता था. बंगाल, अवध, मगध सहित पूर्वी भारत में अक्सर होने वाले विद्रोह पर सशक्त दबिश रखने की गरज से प्रयाग सबसे सटीक जगह थी, जहां किला बनाकर सेना की पलटन रखी जा सकती थी. किला चूंकि संगम तट पर था लिहाजा अकसर गंगा यमुना के मनमाने कटाव की वजह से संगम की जगह बदलती रहती थी. लिहाजा नक्शे के मुताबिक निर्माण नहीं हो पा रहा था. इतिहास बताता है कि फिर अकबर ने संगम पर यमुना किनारे की ऊंची भूमि और लेटे हनुमान जी के स्थान को भी किले के घेरे में लेने की योजना बनाई. तब संन्यासियों ने इसका विरोध किया.

तब बादशाह ने प्रस्ताव दिया कि हनुमान जी को गंगा जी के पास शिफ्ट कर दिया जाए. अकबर के विशेषज्ञों ने पूरा जोर लगा लिया, सब तिकड़म भिड़ा ली, लेकिन लेटे हनुमान जी टस से मस नहीं हुए. जब सब थक हार गए, तो अकबर ने भी हनुमान जी के आगे हाथ खड़े कर किले की दीवार पीछे ही बनाई.

अकबर ने हनुमान जी को समर्पित की जमीन कहते हैं कि इसके बाद हनुमान जी की शक्ति से चमत्कृत अकबर ने कई जगहों पर बीघों जमीन हनुमान जी को समर्पित की. प्रयागराज का नाम जब इलाहाबाद हुआ, तो अल्लापुर इलाके में बाघंबरी मठ बना और उसकी जमीन भी तत्कालीन शासन ने ही भेंट की. बाघंबरी मठ को अकबर द्वारा दान में दी गई जमीन-जायदाद, खेत-खलिहान का संचालन एक अर्से तक ठीक रहा. लेकिन उसके बाद बाघंबरी मठ अक्सर विवादों में घिरा रहा. कभी गद्दी पर दावेदारी को लेकर, तो कभी जमीन-जायदाद बेचने को लेकर, तो कभी खूननखराबे और रहस्यमय मौतों को लेकर.

बाबा बाल केसर गिरि महाराज ने की थी स्थापना

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बाघंबरी मठ की स्थापना राजा अकबर के समय में बाबा बाल केसर गिरि महाराज के द्वारा की गई थी. अकबर द्वारा बाघंबरी मठ के साथ प्रयागराज जिले में अन्य स्थानों पर भी जमीन दान दी गई थी. सूत्र बताते हैं कि कुछ समय पूर्व तक अखाड़े में जमीन से संबंधित ताम्रपत्र मौजूद थे. बाघंबरी मठ के पहले महंत बाबा बाल केसर गिरि महाराज थे. उसके बाद से बाघंबरी मठ की परंपरा चली. यह मठ दशनाम संन्यासी परंपरा के गिरि नामा संन्यासियों की गद्दी है.

बाबा बाल केसर गिरि महाराज के बाद अनेक संत इस गद्दी पर विराजमान हुए. वर्ष 1978 में महंत विचारानंद गिरि महाराज इस गद्दी के महंत थे. यात्रा के दौरान दिल का दौरा पड़ने से उन्होंने शरीर त्याग दिया. उनसे पहले महंत पुरूषोत्तमानंद इस गद्दी पर थे. महंत विचारानंद की मृत्यु के बाद श्रीमहंत बलदेव गिरि इस बाघंबरी गद्दी के उत्तराधिकारी हुए.

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वर्ष 2004 में अखाड़े के संतों ने महंत बलदेव गिरि पर गद्दी छोड़ने का दवाब बनाया. बलदेव गिरि फक्कड़ संत थे, सो मठ छोड़ कर चल दिए. इसके बाद आए महंत भगवान गिरि. दो साल के भीतर ही भगवान गिरी को गले में कैंसर का रोग हो गया. उनका भी निधन 2006 में हो गया. महंत भगवान गिरि की मृत्यु के बाद श्रीमहंत नरेन्द्र गिरि ने अपना दावा पेश किया और अखाड़े पर दवाब बनाकर 2006 में नरेन्द्र गिरि महंत बन गए. विवाद तब भी हुआ, क्योंकि उस समय श्री महंत नरेंद्र पुरी थे, गिरी तो बाद में लगाया.

गद्दी पर महंती के दावे के समय नरेंद्र गिरि के गुरु हरगोविंद पुरी के गुरु भाई मुलतानी मढ़ी के बालकिशन पुरी ने नरेंद्र पुरी को गद्दी का महंत बनाए जाने का विरोध किया. उनका कहना था कि बाघंबरी गद्दी गिरि नामा संन्यासियों की है. ऐसे में पुरी नामा संन्यासी का महंत बनना उचित नहीं है. इस पर नरेंद्र गिरि ने उनके साथ झगड़ा किया और अपने लोगों के साथ मिलकर अभद्रता की. अपमान होने से क्षुब्ध बालकिशन पुरी अपना बोरिया बिस्तर झोली झंडा उठाकर तत्काल चलते बने और राजस्थान के खिरम में धूनी रमाई.

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कहा तो ये भी जाता है कि नरेन्द्र गिरि के बाघंबपी मठ का महंत बनने के बाद से ही मठ की जमीनों को बेचने और अवैध पट्टे पर देने के साथ साथ व्यवसाय की भांति धन की आवाजाही का सिलसिला शुरू हो गया. कई बार अयोग्य लोगों को महामंडलेश्वर बनाने के आरोपों को लेकर भी महंत नरेंद्र गिरि विवादों में रहे. दाती महाराज और सचिन दत्ता को महामंडलेश्वर बनाए जाने पर संत समाज ही उनके खिलाफ खड़ा हो गया. फिर नरेंद्र गिरी के शिष्य आशीष गिरी के रहस्यमय ढंग से कथित तौर पर आत्महत्या करने को लेकर भी विवाद छिड़ा था.

अब नरेंद्र गिरि की संदिग्ध मौत से उठे सवाल: खुद नरेंद्र गिरी की कथित आत्महत्या सवालों के कठघरे में खड़ी है. ऐसा कहा जा रहा है कि बाघंबरी मठ की अकूत संपदा ही श्रीमहंत नरेंद्र गिरि की मौत की वजह बनी. श्रीमहंत नरेंद्र गिरि के निधन के बाद हरिद्वार से प्रयाग लाए गए शिष्य आनन्द गिरि को पुलिस ने गिरफ्तार भी कर लिया है. लेटे हनुमान जी के पुजारी आद्या तिवारी भी पुलिस के गिरफ्त में हैं और उनके पुत्र संदीप तिवारी से भी पूछताछ हो रही है.

ये तो जगजाहिर है कि आद्या तिवारी नरेंद्र गिरि के सबसे बड़े राजदार थे. आद्या तिवारी का नरेंद्र गिरि से मेलजोल तब से था जब नरेंद्र गिरि फक्कड़ थे. बाघंबरी गद्दी पर काबिज होने के बाद आद्या तिवारी की पौ बारह हो गई. कहते हैं कि नरेंद्र गिरि का हर राज आद्या तिवारी जानते थे. इसी बीच आनंद गिरि और नरेंद्र गिरि के बीच मतभेद और मनभेद, सार्वजनिक झगड़े और पुलिस फौजदारी तक पहुंच गए. आद्या तिवारी ने अपने पुत्र संदीप तिवारी को भी बड़े हनुमान जी मंदिर में अपने पास बुला लिया और अघोषित तौर पर उत्तराधिकारी बनाने की जुगत में लग गए.

आद्या तिवारी ने अपने पुत्र संदीप तिवारी को आनंद गिरि के साथ लगा दिया. कुछ ही समय में संदीप तिवारी आनंद गिरि के खासमखास हो गए. अब नरेंद्र गिरी के राज आद्या तिवारी के पास और आनंद गिरि के राज संदीप तिवारी के पास हो गए. हालांकि अब पुलिस मामले की जांच कर रही है, तो ये राज बाहर भी आ सकते हैं और कई चौंकाऊ खुलासे हो सकते हैं.

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