आख़िर क्यों मुसलमान सवा दो महीने तक मनाते हैं ग़म और मोहर्रम, मौलाना आबिदी ने बताई ये वजह

बाराबंकी में विश्वविख्यात इस्लामिक स्कॉलर मौलाना मोहम्मद मिया आबिदी 'कुम्मी' ने बताया क्यों मनाते हैं मुस्लिम सवा दो महीने तक ग़म और मोहर्रम. इमाम हुसैन और अली असगर की कर्बला में शहादत का दर्दनाक किस्सा.

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Muharram Mourning Karbala Sacrifice.
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यूपी के बाराबंकी में हज़रत इमाम हुसैन (अ.) और उनके साथियों की कर्बला में दी गई कुर्बानियों की याद में शिया–सुन्नी मुस्लिम समाज हर साल मुहर्रम से लेकर अर्बईन तक लगभग सवा दो महीने तक ग़म और मातम का सिलसिला मनाता है. इस सिलसिले को और शहादत की अहमियत को समझाने के लिए बाराबंकी पहुंचे विश्वविख्यात इस्लामिक स्कॉलर मौलाना मोहम्मद मिया आबिदी "कुम्मी" ने एक भावुक मजलिस को संबोधित किया. मौलाना आबिदी ने कहा कि कर्बला सिर्फ इतिहास नहीं, बल्कि इंसाफ, सच्चाई और अमन के लिए दी गई वो कुर्बानी है, जिसकी मिसाल आज तक नहीं मिलती. उन्होंने बताया कि हज़रत इमाम हुसैन (अ.) ने अपने 72 साथियों सहित अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद करते हुए शहादत दी, ताकि आने वाली नस्लों को यह पैग़ाम मिले कि जुल्म के सामने झुकना गुनाह है.

छह महीने के अली असगर की शहादत पर ग़मगीन हुआ मजलिस का माहौल

मजलिस में मौलाना मोहम्मद मिया आबिदी ने जब हज़रत अली असगर (अ.), इमाम हुसैन के छह महीने के मासूम बेटे की शहादत का ज़िक्र किया, तो आज़ादार ग़म में डूब गया. उन्होंने बताया कि कैसे प्यास से तड़पते अली असगर को जब पानी की गुहार के लिए इमाम ने अपने हाथों पर उठाकर दुश्मन के सामने पेश किया, तो यज़ीदी फौज ने तीन भाल का तीर चलाकर उस मासूम को भी शहीद कर डाला. यह सुनकर मजलिस में मौजूद अज़ादारों की आंखें नम हो गईं और कई लोग फूट-फूट कर रो पड़े.

बीबी सकीना और शहजादी रबाब के दर्दनाक मसायब ने रुलाया

मौलाना आबिदी ने आगे बताया कि जब इमाम हुसैन और उनके तमाम साथियों को शहीद कर दिया गया, तो उनके परिवार की महिलाओं और बच्चों को कैद करके कूफ़ा और फिर शाम (आज का सीरिया) ले जाया गया. इसी दौरान इमाम की चार साल की बेटी बीबी सकीना ने क़ैद में शहादत हो गई . इमाम हुसैन की पत्नी और बीबी सकीना की मां, शहजादी रबाब ने इस ग़म में कभी साये में बैठना गंवारा नहीं किया, और आख़िरी सांस तक धूप में बैठकर ग़म मनाती रहीं.

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अंजुमनों की नौहाख़्वानी से गूंजा ग़म का माहौल

मजलिस के बाद बाराबंकी की "अंजुमन गुंचाए अब्बासिया" और अयोध्या की "अंजुमन गुंचाए मजलूमिया" ने नौहाख्वानी और मातम पेश किया, जिससे माहौल बेहद ग़मगीन हो गया. उनके दर्द भरे नौहे और सलाम सुनकर हर आंख नम हो गई.

आयोजन में जुटे सांसद,नेता,पत्रकार और समाजसेवी

इस पूरी मजलिस के आयोजन में वरिष्ठ पत्रकार सरवर अली रिजवी, कौसर रिजवी, रोशन रिजवी और उनके परिवार के अन्य सदस्य सक्रिय रहे. उन्होंने सभी अकीदतमंदों और मेहमानों का तहे दिल से शुक्रिया अदा किया.

मोहर्रम का ग़म क्यों?

शिया–सुन्नी मुस्लिम समुदाय मोहर्रम और उससे आगे सफ़र महीने तक ग़म इसलिए मनाते हैं क्योंकि यह समय कर्बला की त्रासदी से जुड़ा है. इमाम हुसैन की शहादत केवल एक की मौत नहीं, बल्कि 72 की शहादत थी,जो अन्याय, तानाशाही और हिंसा के विरुद्ध खड़ी इंसानियत की सबसे बड़ी मिसाल है. यही वजह है कि शिया समाज सवा दो महीने तक काले कपड़े पहनकर, मजलिसें कर, मातम करके और रोज़ाना कर्बला के वाक़यों को याद करके यह ग़म मनाता है. कर्बला के शहीदों की याद, आज भी अमन, इंसाफ और सच्चाई का रास्ता दिखाती है.

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