MSP की कानूनी गारंटी से इकॉनमी पर क्या असर पड़ेगा? एक्सपर्ट से समझिए हर अहम पहलू

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नरेंद्र मोदी सरकार ने भले ही 3 विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान कर आंदोलन कर रहे किसान संगठनों की मुख्य मांग मान ली हो, मगर अभी भी इन संगठनों और सरकार के बीच गतिरोध पूरी तरह खत्म होने के आसार नहीं दिख रहे. इसकी बड़ी वजहों में से एक है- प्रदर्शनकारी किसान संगठनों की ओर से फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी की मांग.

यह मांग जब से तेज हुई है, तब से लगातार विशेषज्ञों की अलग-अलग राय सामने आ रही हैं. कुछ का मानना है कि किसानों को एमएसपी की कानूनी गारंटी मिलनी ही चाहिए, जबकि कुछ का मानना है कि मौजूदा वक्त में ऐसा हुआ तो इससे न सिर्फ सरकार की मुश्किलें बढ़ जाएंगी, बल्कि अर्थव्यवस्था पर भी बुरा असर पड़ेगा.

ऐसे में हमने जानेमाने कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा से बात की और इस मुद्दे पर विस्तार से उनकी राय जानी. उन्होंने जो कहा है, वो भी बताएंगे, एमएसपी से जुड़ा हर अहम पहलू समझाएंगे, सरकार के मौजूदा रुख पर भी नजर दौड़ाएंगे, लेकिन सबसे पहले उस राय की बात कर लेते हैं, जो एमएसपी पर कानूनी गारंटी के पक्ष में नहीं है.

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न्यूज एजेंसी एएनआई के मुताबिक, कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त कमेटी के एक सदस्य अनिल घनवत का कहना है,

”अगर (एमएसपी पर) कानून बनता है, तो हम (भारत) संकट का सामना करेंगे. कानून की वजह से, अगर किसी दिन (खरीद) प्रक्रिया कम हो जाती है, तो कोई भी कृषि उत्पाद नहीं खरीद पाएगा क्योंकि एमएसपी से कम कीमत पर खरीदना अवैध होगा और उन्हें (व्यापारियों को) इसके लिए जेलों में डाल दिया जाएगा.”

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”इससे संकट खड़ा हो जाएगा क्योंकि न केवल व्यापारियों को बल्कि स्टॉकिस्ट और इससे जुड़े सभी लोगों को भी नुकसान होगा. कमोडिटी बाजार भी अस्त-व्यस्त हो जाएगा.”

”हम एमएसपी के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन ओपन एंडेड खरीद एक समस्या है. हमें बफर स्टॉक के लिए 41 लाख टन अनाज की जरूरत है, लेकिन 110 लाख टन की खरीद की. अगर एमएसपी कानून बना तो सभी किसान अपनी फसल के लिए एमएसपी की मांग करेंगे और कोई भी इससे कुछ भी कमाने की स्थिति में नहीं होगा.”

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कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का क्या कहना है?

देविंदर शर्मा ने यूपी तक से बातचीत में कहा, ”एमएसपी को कानूनी गारंटी देश की इकॉनमी के लिए रॉकेट डोज होगी. आप ये देखिए कि हमारे देश में जब सातवां वेतन आयोग आया था, तब ये कहा गया था इंडस्ट्री और कॉरपोरेट्स की ओर से कि यह इकॉनमी के लिए बूस्टर डोज की तरह काम करेगा क्योंकि कर्मचारियों को जो ज्यादा पैसा मिलेगा, वो मार्केट में आएगा. जब मार्केट में आएगा तो मार्केट में डिमांड पैदा होगी.”

इसके आगे उन्होंने कहा, ”वो तो सिर्फ 4-5 फीसदी तो हैं, देश के कर्मचारी जो हैं. 4-5 फीसदी देश के लोगों को अगर आप सातवां वेतन आयोग देते हो और कहते हो कि यह बूस्टर डोज होगी इकॉनमी के लिए, तो आप ये मानिए कि जिस दिन 50-60 फीसदी जनता जो है देश की, यानी 60 करोड़ से ज्यादा लोगों के हाथ में जब ज्यादा पैसे आएंगे तो वो बूस्टर डोज नहीं होगी, बल्कि रॉकेट डोज हो जाएगी इकॉनमी के लिए.”

शर्मा ने कहा,

  • ”जब लोगों के पास ज्यादा पैसा आएगा और वो मार्केट में आएगा तो हमारी जीडीपी दौड़ने लगेगी. जब इकॉनमी आपकी बूम कर जाएगी तो उससे तो सभी को फायदा होगा ना?”

  • ”जहां तक बात है उन लोगों की जो कह रहे हैं कि एमएसपी पर कानूनी गारंटी से इकॉनमी ध्वस्त हो जाएगी, तो सिंपल सी बात ये है कि किसान ये नहीं कह रहे हैं कि सारे कृषि उत्पाद सरकार खरीदे, किसान ये कह रहे हैं कि जो एमएसपी सरकार घोषित करती है 23 फसलों के हर साल, उससे कम दाम पर खरीद नहीं होनी चाहिए, खरीद चाहे किसी भी माध्यम से हो, प्राइवेट सेक्टर के जरिए हो, ट्रेडर्स के माध्यम से हो, या एपीएमसी के जरिए हो. तो इससे (सरकार के लिए) अतिरिक्त भंडारण की जरूरत ही नहीं पडे़गी.”

  • ”औने-पोने दाम पर खरीदने वाले लोग चाहते हैं कि एमएसपी पर कानूनी गारंटी न आए. अभी ऐसा होता है कि प्राइवेट खरीदार वहीं से ज्यादातर खरीद करते हैं, जहां उन्हें सस्ते दामों पर कृषि उत्पाद मिलते हैं. मगर जब एमएसपी पर कानूनी गारंटी होगी, जब देश में एक जैसा प्राइस होगा तो उनके पास दूसरी जगह जाकर सस्ते में खरीदारी करने का विकल्प नहीं होगा. अभी बदमाशी ये होती है कि अगर आपने एक जगह दाम बढ़ा दिए तो निजी व्यापारी कहते हैं कि हम दूसरे इलाके से खरीद कर लेंगे.”

एमएसपी को कानूनी गारंटी मिलने से सरकार का कितना खर्च बढ़ेगा, इसे लेकर उन्होंने कहा, ”सरकार को सारी खरीदारी नहीं करनी है. कई अध्ययन हो चुके हैं जो कहते हैं कि अगर पूरे देश में एमएसपी लागू हो जाता है तो सरकार के ऊपर सालाना अतिरिक्त खर्चा डेढ़ लाख करोड़ रुपये से लेकर दो लाख करोड़ रुपये तक आएगा.”

इसके अलावा उन्होंने कहा कि जो लोग कहते हैं कि एमएसपी की कानूनी गारंटी से महंगाई बढ़ जाएगी, ”मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि जब पेट्रोल का दाम 100 रुपये प्रति लीटर हुआ तो क्या उससे महंगाई नहीं बढ़ी? तब आप कुछ नहीं बोलते. तब लोग 200 रुपये प्रति लीटर देने को भी तैयार हो जाते हैं.”

इस सवाल के जवाब में कि देश के कितने किसानों को एमएसपी मिल पाता है, शर्मा ने कहा कि 2019 में आए सरकार के एक सर्वे में यह बात कही गई है कि 6 फीसदी किसानों को ही देश में एमएसपी मिलता है.

एमएसपी को लेकर सरकार का क्या कहना है?

19 नवंबर के अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘‘एमएसपी को और अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाने के लिए, ऐसे सभी विषयों पर, भविष्य को ध्यान में रखते हुए, निर्णय लेने के लिए, एक कमेटी का गठन किया जाएगा. इस कमेटी में केंद्र सरकार, राज्य सरकारों के प्रतिनिधि होंगे, किसान होंगे, कृषि वैज्ञानिक होंगे, कृषि अर्थशास्त्री होंगे.’’

क्या हैं एमएसपी पर किसानों की मांग के मायने?

एमएसपी सरकार की तरफ से घोषित कृषि उत्पादों का मूल्य होता है. जैसे अगर किसी कृषि उत्पाद का एमएसपी 1000 रुपये प्रति क्विंटल घोषित किया गया है तो माना जाता है कि किसान को उस कृषि उत्पाद के लिए इतना मूल्य तो मिलना ही चाहिए.

मगर भारत में एमएसपी को लागू करने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है. सिर्फ गन्ने के लिए एक कानूनी पहलू नजर आता है. दरअसल गन्ने का मूल्य शुगरकैन (कंट्रोल) ऑर्डर 1996 के हिसाब से तय होता है, जिसे आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत जारी किया गया था. यह ऑर्डर गन्ने के लिए हर साल एक फेयर एंड रिम्युनेरेटिव प्राइस (एफआरपी) तय करने की व्यवस्था देता है. एफआरपी के हिसाब से पेमेंट की जिम्मेदारी चीनी मिलों की होती है.

प्रदर्शनकारी किसान संगठनों की यही मांग है कि एमएसपी को लागू करने की कोई कानूनी बाध्यता होनी चाहिए क्योंकि ऐसा न होने की वजह से देश में किसानों का बड़ा हिस्सा एमएसपी से कम दाम पर अपनी फसलें बेचने को मजबूर हो जाता है.

मगर एमएसपी का मुद्दा बस यहीं खत्म नहीं हो जाता. इसे तय करने की प्रक्रिया पर भी सवाल उठते रहे हैं. ऐसे में यह भी जान लेते हैं कि एमएसपी आखिर तय कैसे होता है? दरअसल केंद्र सरकार प्रमुख कृषि उत्पादों का एमएसपी कमिशन फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट्स एंड प्राइसेज (सीएसीपी) की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए तय करती है. सीएसीपी भारत सरकार के कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय का अटैच्ड ऑफिस है. यह जनवरी 1965 में अस्तित्व में आया था.

मौजूदा वक्त में सीएसीपी इन 23 कमोडिटीज के एमएसपी की सिफारिश करता है:

  • अनाज: धान, गेहूं, मक्का, ज्वार, बाजरा, जौ और रागी

  • दाल: चना, अरहर, मूंग, उड़द, मसूर

  • तिलहन: मूंगफली, सरसों, सोयाबीन, तिल, सूरजमुखी, कुसुम, रामतिल

  • कमर्शियल फसलें: कोपरा, गन्ना, कपास और कच्चा जूट

सीएसीपी हर साल, कमोडिटीज के 5 अलग-अलग ग्रुप के लिए प्राइस पॉलिसी रिपोर्ट्स के तौर पर सरकार को अपनी सिफारिशें देता है. ये ग्रुप खरीफ की फसलों, रबी की फसलों, गन्ना, कच्चे जूट और खोपरा से जुड़े होते हैं.

प्राइस पॉलिसी रिपोर्ट तैयार करने से पहले सीएसीपी व्यापक प्रश्नावली तैयार करता है और इसे सभी राज्य सरकारों, संबंधित राष्ट्रीय संगठनों और मंत्रालयों को उनकी राय लेने के लिए भेजता है. सीएसीपी के अनुसार, वो उत्पादन लागत, मांग और आपूर्ति, बाजार में प्राइस ट्रेंड जैसे पहलुओं को भी ध्यान में रखता है.

कई प्रक्रियाओं से गुजरते हुए सीएसीपी सभी इनपुट्स के आधार पर अपनी रिपोर्ट तैयार करता है, और फिर रिपोर्ट को केंद्र के पास भेजा जाता है. इसके बाद केंद्र सरकार राज्य सरकारों और अपने संबंधित मंत्रालयों के फीडबैक लेती है. फिर केंद्र की कैबिनेट कमेटी ऑन इकनॉमिक अफेयर्स एमएसपी को लेकर अंतिम फैसला करती है.

आखिर में एक अहम बात यह भी जान लेते हैं कि एमएसपी तय करने के लिए फसलों की लागत की गणना कैसे होती है? आम तौर पर फसलों की लागत की गणना के लिए तीन कैटिगरी का जिक्र होता है- A2, A2+FL, C2.

A2 में फसल उत्पादन के लिए किए गए नकद खर्च जैसे- बीज, खाद, सिंचाई आदि शामिल होते हैं. A2+FL में नकद खर्च के साथ फैमिली लेबर यानी किसान परिवार का अनुमानित मेहनताना भी जोड़ा जाता है. वहीं C2 में नकद खर्च, फैमिली लेबर के अलावा खेत की जमीन का किराया और कुल कृषि पूंजी पर लगने वाला ब्याज भी शामिल किया जाता है. कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक, मौजूदा वक्त में किसानों को A2+FL लागत का 1.5 गुना एमएसपी मिल पाता है.

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