पसमांदा मुस्लिम: क्या यूपी में बीजेपी ने ढूंढ लिया देश पर 40 साल राज करने का फॉर्म्युला?

अमीश कुमार राय

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भारत यूं तो दुनिया में सबसे बड़ा लोकतंत्र है लेकिन जब यहां वोट देने की बारी आती है, तो धर्म और जाति की सियासत डेमोक्रेसी के सिर चढ़कर बैठ जाती है. और इस सियासत का असली जंगी मैदान है यूपी. यहां हर कोई आपके नाम की टाइटल पूछ और कभी-कभी तो सिर्फ नाम से ही आपकी धार्मिक पहचान जान यह बता देगा कि आप किसके वोटर हैं.

यूपी की इस ‘फर्टाइल राजनीतिक जमीन’ पर इस वक्त एक नई सियासत खेली जा रही है. यह सियासत है पसमांदा मुस्लिमों की सियासत और इसकी खिलाड़ी है बीजेपी. अक्सर बीजेपी नेता और गृहमंत्री अमित शाह के एक बयान की चर्चा होती रहती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगले 30-40 सालों तक भाजपा युग रहेगा.

अब कहा जा रहा है कि यूपी में बीजेपी ने जिस पसमांदा सियासत को शुरू किया है, दरअसल ये उसी 40 साल वाले युग का सियासी फॉर्म्युला ही है.

अब सवाल यह है कि आखिर पसमांदा सियासत क्या है और बीजेपी इसे लेकर कैसा चक्रव्यूह रच रही है? असल में रविवार को बीजेपी ने लखनऊ में पसमांदा बुद्धिजीवी सम्मेलन का आयोजन किया. इस सम्मेलन के मुख्य आयोजर यूपी बीजेपी के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के अध्यक्ष बासित अली रहे. इसके मुख्य अतिथि डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक रहे और योगी सरकार के एकमात्र मुस्लिम मंत्री दानिश आजाद अंसारी ने भी इसमें शिरकत की.

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आपको बता दें कि दानिश आजाद अंसारी खुद पसमांदा मुसलमान हैं. इसके अलावा मंगलवार को एक दूसरे सम्मेलन का उद्घाटन डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने भी किया. इस कार्यक्रम में मौर्य ने पसमांदा मुसलमानों से आने वाले हर चुनाव की बागडोर अपने हाथ में लेने का आह्वान करते हुए कहा कि ‘आपने सब पर भरोसा कर कर देख लिया, जरा एक बार भाजपा पर भी भरोसा करके देख लीजिए.’

क्या ये आपको बिल्कुल नई तरह की सियासत नहीं लग रही? अक्सर बीजेपी पर मुस्लिम हितों के विरोध में सियासत के आरोप लगते हैं. यूपी में भी विपक्ष योगी आदित्यनाथ सरकार पर मुस्लिमों को टारगेट करने का आरोप लगाता आया है. चाहे सीएए-एनआरसी के विरोध प्रदर्शन का वक्त हो या नुपूर शर्मा के विरोध में यूपी में हुई हिंसाओं के बाद आरोपियों के घर चलाए गए बुल्डोजर का मामला, प्रदेश की सरकार पर मुस्लिमों के संग दोहरा रवैया अपनाने के आरोप लगे हैं. अब ऐसे में अगर बीजेपी मुस्लिमों की सियासत कर रही है, उनसे खुद पर भरोसा जताने को कह रही है, तो एक आम समझ के लिए चौंकना लाजिमी है.

तो चलिए सबसे पहले यही समझ लेते हैं कि पसमांदा कौन हैं?

असल में पसमांदा उर्दू-फारसी का शब्द है, जिसका अर्थ है छूट जाना. यानी ऐसे लोग जो पीछे छूट गए (या छोड़ दिए गए) उन्हें पसमांदा कहा जाता है. पिछड़े और वंचित मुस्लिमों को पसमांदा मुस्लिम कहा जाता है. कुछ का ऐसा मानना है कि हिंदू पिछड़ी जातियों और दलित जातियों का मुगल काल में धर्मांतरण हुआ और ऐसे लोग मुसलमान हो गए. यह भी कहा जाता है कि यूपी और बिहार में इनकी संख्या मुस्लिम समुदाय के भीतर ज्यादा देखने को मिलती है. एक अनुमान के मुताबिक पसमांदा, कुल मुस्लिम आबादी का 70 प्रतिशत से अधिक हैं और भाजपा का लक्ष्य विभिन्न राज्यों के चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी के दौरान उन तक पहुंचना है.

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विभिन्न दलों में मुस्लिम नेता अशराफ में से आते हैं, जिनमें सैयद, मुगल और पठान (हिंदुओं में उच्च जातियों के समान) शामिल हैं. पसमांदा में मलिक (तेली), मोमिन अंसार (बुनकर), कुरैशी (कसाई), मंसूरी (रजाई और गद्दे बनाने वाले), इदरीसी (दर्जी), सैफी (लोहार), सलमानी (नाई) और हवारी (धोबी) शामिल हैं. जुलाई में हैदराबाद में आयोजित हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पीएम मोदी ने सुझाव दिया था कि पार्टी कार्यकर्ताओं को पसमांदा मुसलमानों जैसे अल्पसंख्यकों के पिछड़े वर्गों तक पहुंचना चाहिए.

यूपी में मुस्लिमों के जिक्र के चुनावी मायने क्या?

असल में यूपी में बीजेपी के निशाने पर सिर्फ पसमांदा मुस्लिम ही नहीं हैं, बल्कि यादव और जाटव भी हैं. उत्तर प्रदेश के 80 लोकसभा क्षेत्रों में एक लाख 70 हजार से ज्‍यादा बूथ हैं और भाजपा ने अपने संगठनात्मक सर्वे में इनमें से 22 हजार बूथ को कमजोर माना है. सूत्रों के मुताबिक ये बूथ खासतौर से यादव, जाटव और मुस्लिम बहुल हैं. बीजेपी ने इन्हें लेकर अलग रणनीति बनाई है. यही वजह है कि यादव और दलित बहुल आजमगढ़ और मुस्लिम बहुल रामपुर में हाल ही में हुए उपचुनाव में भाजपा ने बाजी मारी थी.

अनुमान के मुताबिक यूपी में यादवों की हिस्सेदारी करीब 11 प्रतिशत, दलितों की 21 फीसदी और मुसलमानों की 18 फीसदी है. राज्‍य में 17 लोकसभा सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. राज्य की दस-दस सीटों पर यादव और मुस्लिम मतदाताओं की निर्णायक भूमिका मानी जाती है. यानी पसमांदा के बहाने बीजेपी 2024 के आम चुनावों के लिए जुट गई है.

गौरतलब है कि पसमांदा यानी मुसलमानों के पिछड़े वर्गों की उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों की कुल आबादी में 85% हिस्सेदारी मानी जाती है. यहां मुसलमानों की 41 जातियां इस समाज में शामिल हैं, इनमें कुरैशी, अंसारी, सलमानी, शाह, मंसूरी और सिद्दीकी प्रमुख हैं, भाजपा मुस्लिम समाज के इस बड़े वर्ग को अपने पाले में लाने के प्रयास के तहत जगह-जगह पसमांदा सम्मेलन आयोजित कर रही है. पार्टी ने ऐलान किया है कि आने वाले नगरीय निकायों के चुनाव में वह मुसलमानों को भी टिकट देगी. यूपी तक से बातचीत के दौरान इस बात की तस्दीक यूपी बीजेपी के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के अध्यक्ष बासित अली भी कर रहे हैं कि टिकट इस बार मुस्लिमों को अधिक दिए जाएंगे.

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जहां तक यूपी में पसमांदा मुसलमानों का सवाल है तो भाजपा ने योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व की दूसरी सरकार में बलिया के अति पिछड़े मुस्लिम परिवार से आने वाले दानिश आजाद अंसारी को मंत्रिमंडल में शामिल किया और उन्हें अल्पसंख्यक मामलों का राज्यमंत्री बनाया गया है. अंसारी को जब मंत्री पद दिया गया तब वह विधानमंडल के किसी सदन के सदस्‍य भी नहीं थे, जिन्हें बाद में भाजपा ने विधान परिषद में भेजा. भाजपा का मानना है कि केंद्र की मोदी सरकार और प्रदेश की योगी सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं का फायदा आर्थिक रूप से पिछड़े पसमांदा मुस्लिमों को भी मिला है. ऐसे में बीजेपी इन्हें अपनी लाभार्थी वाली राजनीति का हिस्सा बनाना चाहती हैं.

क्या मुस्लिम बीजेपी को वोट भी करते हैं?

समाज में आम धारणा या यूं कहें ब्रॉड पर्सेप्शन तो यही है कि मुस्लिम बीजेपी को वोट नहीं देते बल्कि एकजुट होकर बीजेपी को हराने की कोशिश करते हैं. हालांकि आंकड़े इसके उलट तस्वीर पेश करते हैं. चलिए पहले हालिया 2022 के विधानसभा चुनावों की बात करते हैं. सीएसडीएस-लोकनीति के मुताबिक इस चुनाव में यूपी के 79 फीसदी मुस्लिमों ने समाजवादी पार्टी गठबंधन को वोट दिया. वहीं 8 फीसदी मुस्लिमों ने बीजेपी को भी वोट दिया. 2017 की तुलना में बीजेपी को एक फीसदी अधिक मुस्लिम वोट मिला.

इतना ही नहीं, अमेरिका स्थित Pew रिसर्च सेंटर ने अपने सर्वे ‘रिसर्च, कास्ट, नेशनलिज्म एंड एटिट्यूड्स इन इंडिया’ में पाया है कि 2019 लोकसभा चुनावों में 20 फीसदी मुस्लिमों ने बीजेपी को वोट किया. हालांकि ये डाटा चैलेंजेबल है क्योंकि सीएसडीएस लोकनीति पोस्ट पोल सर्वे के मुताबिक यह आंकड़ा 8 फीसदी है, जो 2014 में भी 8 फीसदी ही था.

बीजेपी के लिए लगातार बढ़ रहा हिंदुओं का वोट तो मुस्लिमों का वोट क्यों चाहिए?

2014 के बाद से चुनाव दर चुनाव बीजेपी के लिए देश में हिंदू वोट एकजुट होता जा रहा है. आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं. लोकनीति पोस्ट पोल सर्वे के मुताबिक 2014 में 36 फीसदी हिंदुओं ने बीजेपी को वोट किया. 2019 में यह आंकड़ा 44 फीसदी हो गया. सहयोगियों को मिले 8 फीसदी वोट मिला दिए जाएं तो एनडीए को 2019 में 52 फीसदी हिंदुओं ने वोट दिया.

यूपी में भी बीजेपी के लिए यह तस्वीर कोई अलग नहीं है. सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे के मुताबिक 2017 में यूपी में बीजेपी को 47 फीसदी हिंदू वोट मिले. 2022 में यह आंकड़ा बढ़कर 54 फीसदी हो गया. ऐसे में सवाल यह है कि जब हिंदू वोट बढ़ ही रहे हैं, तो बीजेपी को मुस्लिमों के वोट क्यों चाहिए? इसका जवाब बीजेपी कार्यकर्ताओं में ‘चाणक्य’ के नाम से प्रसिद्ध अमित शाह की उस आकांक्षा में छिपा है, जो उन्होंने हैदराबाद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के बैठक में जाहिर की. आकांक्षा 40 सालों तक बीजेपी के शासन की.

तर्क यह है कि बीजेपी को अगर कांग्रेस की तरह कई दशकों तक देश में सिंगल पार्टी डोमिनेंस स्थापित करना है तो उसे सर्वजन के वोट चाहिए. इस सर्वजन के वोट में देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक तबका यानी मुस्लिम तबका भी है. बीजेपी के रणनीतिकारों का मानना है कि देश में अबतक की सियासत में पिछड़े मुस्लिमों तक दूसरी पार्टियां नहीं पहुंच पाई हैं. ऐसे में वह इस बड़े वोटर समूह को सरकारी योजनाओं का लाभ देकर अपनी ओर आकर्षित कर सकती है. अगर ऐसा हुआ तो एक तीर से दो निशाने सधेंगे. एक, बीजेपी के वोटर बेस में एक नया आयाम जुड़ेगा, दूसरा- कांग्रेस, सपा जैसी पार्टियों को एकमुश्त मिलने वाले मुस्लिम वोटर बेस में सेंध लगेगा.

पर क्या बीजेपी के लिए पसमांदा को साधना इतना आसान है?

पूर्व सांसद अली अनवर की मानें, तो ऐसा कत्तई संभव नहीं है कि पसमांदा मुसलमान बीजेपी की तरफ चले जाएं. यूपी तक के शाम 7 बजे के पॉलिटिकल डिबेट शो मुद्दे की बात में Tak वर्टिकल के क्लस्टर हेड नीरज गुप्ता संग बातचीत में अली अनवर ने इसकी तमाम वजहें गिनाईं हैं. अली अनवर का कहना है कि बीजेपी ने पहले यह प्रयास शिया मुस्लिमों के लिए किया. अब शिया मुस्लिमों की भी आंख खुल गई हैं. उनके मुताबिक, ‘बीजेपी अब पसमांदा मुस्लिमों को बरगलाने की कोशिश में जुटी हुई है, जबकि इस सरकार में बिलकिस बानों के दोषियों की रिहाई होती है, तो मुस्लिम भी सब समझ रहा है.’

पूर्व सांसद अली अनवर कहते हैं कि 1998 में उन्होंने ही पहली बार पसमांदा शब्द को प्रचलित किया और बिहार में ‘पसमांदा मुस्लिम महाज’ नाम के संगठन की स्थापना की. वह आरोप लगाते हैं कि ‘ये नकलची लोग (बीजेपी) ब्रांड की नकल कर लेते हैं. बाबा साहब अंबेडकर, पटेल सबको हथियाने की कोशिश की, लेकिन जनता जानती है कि गांधी के हत्यारे कौन हैं.’ अली अनवर कहते हैं कि इसी तरह पसमांदा को हथियाने की साजिश की जा रही है.

अली अनवर का कहना है कि बीजेपी अगर सचमुच पसमांदा की तरफ हाथ बढ़ाना चाहती है, तो क्या सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशों के मुताबिक पसमांदा मुसलमानों की करीब एक दर्जन जातियों को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करेगी? आपको बता दें कि बीपी मंडल की पिछड़े वर्ग के आरक्षण से संबंधित रिपोर्ट हो या रंगनाथ मिश्रा की अनुसूचित जाति के आरक्षण रिपोर्ट या फिर सच्चर कमेटी की मुस्लिम समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति की रिपोर्ट, सभी में पसमांदा समाज को आरक्षण देकर उनकी स्थिति सुधारने की सिफारिश की गई हैं.

ऐसे में सवाल यह है कि क्या पसमांदा मुस्लिमों के लिए बीजेपी इस हद तक जाएगी कि आरक्षण का पैडोरा बॉक्स खुल जाए? फिलहाल पसमांदा मुस्लिमों के लिए बीजेपी की ‘स्नेह यात्रा’ का उपक्रम चालू है. फायर हिंदुत्व ब्रांड के लिए मशहूर केशव प्रसाद मौर्य जैसे नेता भी पसमांदा मुस्लिमों से अपील कर रहे हैं, इसलिए जाहिर है कि इस सियासत की अभी हद देखी जानी बाकी है.

बहरहाल यूपी तक के शो मुद्दे की बात में बासित अली ने बीजेपी की तरफ से पसमांदा मुस्लिमों की सियासत को स्पष्ट करने की कोशिश की, तो अली अनवर ने इस रणनीति की बखिया भी उधेड़ीं. आप यहां नीचे इस डिबेट को देखें और वहां कमेंट बॉक्स में अपनी राय जरूर बताएं.

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