उत्तर प्रदेश सीएम योगी आदित्यनाथ को मिल गई ‘सुप्रीम राहत’, नहीं चलेगा हेट स्पीच का मुकदमा!

संजय शर्मा

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UP news: उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को राहत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने गोरखपुर 2007 में दिए गए भाषण को हेट स्पीच के तौर पर नहीं माना. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि कोर्ट के सामने पेश तथ्य से आरोप लचर लगते हैं. पीठ को आरोपों में कोई दम नहीं नजर आया. इसलिए योगी के खिलाफ अब हेट स्पीच देने का मुकदमा नहीं चलेगा. शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस की अगुआई वाली तीन जजों की पीठ ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर मुहर लगा दी है.

इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली अपनी अर्जी में याचिकाकर्ता परवेज परवाज ने आरोप लगाया था कि योगी आदित्यनाथ ने 27 जनवरी, 2007 को गोरखपुर में आयोजित एक बैठक में “हिंदू युवा वाहिनी” कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए मुस्लिम विरोधी अभद्र टिप्पणी की थी. इस मामले में योगी के खिलाफ मुकदमा दायर करने पर रोक लगा दी गई थी. मुकदमे की इजाज़त न देने के खिलाफ पहले हाईकोर्ट और बाद में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई.

राज्य सरकार ने मई 2017 में सबूत नाकाफी बताते हुए मुकदमे की इजाजत से मना किया था. वहीं, 2018 में इलाहाबाद हाईकोर्ट भी सरकार के दावे को सही ठहरा चुका है. इस मामले में सुनवाई के दौरान सीएम योगी की ओर से पेश वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने कहा कि योगी अब मुख्यमंत्री बन गए हैं, इसलिए बात को बेवजह खींचा जा रहा है. सीआईडी ने सालों तक जांच की लेकिन कोई तथ्य नहीं मिले. उस समय राज्य में दूसरी पार्टियों की सरकार थी. इसके बाद उन्हीं जांच रिपोर्ट के आधार पर 2017 में राज्य के कानून और गृह विभाग ने मुकदमा चलाने की अनुमति देने से मना किया. ऐसा इसलिए क्योंकि पुलिस के पास मुकदमा दर्ज करने लायक बुनियादी सबूत नहीं थे.

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इसे पहले निचली अदालत और 2018 में हाई कोर्ट भी अपने फैसलों में मान चुका है. फिर एसएलपी सुप्रीम कोर्ट में आई. सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुआई वाली पीठ ने 20 अगस्त 2018 को सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा था. बीते बुधवार को मौजूदा चीफ जस्टिस एनवी रमण की बेंच ने इस पर आदेश सुरक्षित रखा. इस मामले में 3 मई, 2017 को यूपी सरकार द्वारा लिए गए निर्णय,‌ जिसमें मामले में आरोपी पर मुकदमा चलाने और मामले में दायर क्लोजर रिपोर्ट को मंजूरी देने से इंकार कर दिया गया था, उसे भी चुनौती दी गई थी.

याचिकाकर्ता ने पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिसने 22 फरवरी, 2018 को याचिका खारिज कर दी थी. इसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विशेष अनुमति याचिका दायर की थी. याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए एडवोकेट फुजैल अय्यूबी ने कहा कि क्या राज्य एक आपराधिक मामले में प्रस्तावित आरोपी के संबंध में धारा 196 सीआरपीसी के तहत आदेश पारित कर सकता है जो इस बीच मुख्यमंत्री के रूप में निर्वाचित हो जाता है और संविधान के अनुच्छेद 163 के तहत प्रदान की गई योजना के अनुसार कार्यकारी प्रमुख है.’

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उन्होंने कहा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 22 फरवरी, 2018 के अपने आदेश में इस मुद्दे को निपटाया नहीं था. इस प्रकार यह सवाल उठा कि क्या कार्यकारी प्रमुख के रूप में मुख्यमंत्री मंजूरी प्रक्रिया में भाग ले सकते हैं. उन्होंने हाई कोर्ट के समक्ष उठाए गए अन्य मुद्दों पर प्रकाश डाला और कहा कि पहला मुद्दा यह था कि जांच ने विश्वास को प्रेरित नहीं किया और इसलिए इसे पारदर्शी होने की आवश्यकता है.

सीजेआई ने पूछा, “मामले में एक बार क्लोजर रिपोर्ट दर्ज हो जाने के बाद, मंजूरी का सवाल कहां है? यह एक अकादमिक सवाल है. अगर कोई मामला नहीं है, तो मंजूरी का सवाल कहां आएगा?’ इस पर, याचिकाकर्ता ने कहा कि एक मामला था क्योंकि अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया गया था, एक डीवीडी मिली थी, एक एफएसएल रिपोर्ट आई थी और मसौदा अंतिम रिपोर्ट (डीएफआर) तैयार की गई थी.

उन्होंने कहा कि प्रथम दृष्टया मामला बनाया गया था और इस प्रकार एक मंजूरी मांगी गई थी, जिसे कानून विभाग और गृह विभाग के बीच अस्वीकार कर दिया गया था. एडवोकेट अय्युबी ने कहा कि विभाग ने स्वयं निर्णय लिया और इस मुद्दे को अस्वीकार कर दिया. उत्तर प्रदेश राज्य की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट मुकुल रोहतगी ने कहा कि मामले में कुछ भी नहीं बचा था क्योंकि सीएसएफएल ने कहा था कि जिस सीडी पर आपत्तिजनक भाषण की रिकॉर्डिंग थी, उससे छेड़छाड़ की गई थी और नकली थी.

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उन्होंने कहा कि इस संबंध में क्लोजर रिपोर्ट भी थी, जिसे स्वीकार कर लिया गया. उन्होंने यह भी कहा कि मामला सीएम के पास जाने का नहीं था क्योंकि जब कानून विभाग और गृह विभाग के बीच विवाद हुआ था, तब सीएम ही अंतिम मध्यस्थ थे. हालांकि, मौजूदा मामले में कानून विभाग की राय थी कि अगर सीडी से छेड़छाड़ की गई थी और फर्जीवाड़ा किया गया तो किसी तरह की मंजूरी का सवाल ही नहीं उठता और गृह विभाग ने इस पर सहमति जताई थी.

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याची के वकील ने दिए थे ये तर्क

अधिवक्ता अय्युबी ने कहा कि जहां तक ​​डीएफआर का संबंध है, जांच एजेंसी ने स्पष्ट रूप से संकेत दिया था कि अपराध शाखा ने धारा 143, 153, 153 ए, 295 ए और 505 आईपीसी के तहत अपराध बनाए हैं/ उन्होंने कहा कि अपराध का पता लगा लिया गया है और पांचों आरोपियों को नामजद कर दिया गया है. एडवोकेट अयूबी के अनुसार, इसे विधि विभाग द्वारा अस्वीकार किया जा रहा था. आपको बता दें कि सीजेआई रमना ने मौखिक रूप से टिप्पणी की कि याचिकाकर्ता द्वारा उठाया गया मुद्दा अकादमिक था.

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