मथुरा में मंदिर-मस्जिद विवाद की वो कहानी जो औरंगजेब से होती है शुरू

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‘अयोध्या तो बस झांकी है, काशी-मथुरा बाकी हैं’

यूपी में 2022 के चुनावों का बिगुल फूंका जा चुका है. सत्ताधारी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) 2017 के चुनावों में मिले प्रचंड बहुमत को बचाने के लिए संघर्ष कर रही है. वहीं समाजवादी पार्टी (एसपी), बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) और कांग्रेस जैसी विपक्षी पार्टियां बीजेपी को रोकने की हरसंभव जुगत कर रही हैं. 2017 के चुनावों में बीजेपी के मेनिफेस्टो में अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाने का वादा था. नवंबर 2019 में अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राम मंदिर बनाने का रास्ता साफ हो गया है. पर क्या राम जन्मभूमि विवाद बीजेपी की तरकश का वह आखिरी तीर था, जिसका इस्तेमाल बीते चुनावों में पार्टी करती रही है? इसका जवाब वक्त बताएगा. जब अयोध्या में राम मंदिर के आंदोलनों में विश्व हिंदू परिषद के लोगों का एक फेवरिट डायलॉग हुआ करता था कि अयोध्या तो बस झांकी है, काशी मथुरा बाकी है. बीजेपी ने तब वीएचपी के आंदोलन के बाद ही राम मंदिर मुद्दे को अपना सियासी हथियार बनाया था. विनय कटियार जैसे बीजेपी नेता पब्लिकली इस बात को कह चुके हैं कि अयोध्या को मुक्त कराया जा चुका है और काशी-मथुरा कूच किया जाएगा. यानी यह मुद्दा अनवरत है और इसकी बानगी मथुरा में मंदिर-मस्जिद विवाद की उस पटकथा में देखी जा सकती है, जिसकी सुनवाई स्थानीय अदालत में 6 सितंबर को होने वाली है. तो आज जानते हैं काशी-मथुरा के इस अध्याय में मथुरा की कहानी को.

मथुरा श्री कृष्ण जन्मभूमि में भी अयोध्या की तरह ही मालिकाना हक का एक मामला अब कोर्ट की शरण में है. यहां श्री कृष्ण जन्मभूमि के मालिकाना के मामले को लेकर दायर वाद मामला मथुरा के जिला जज की अदालत में विचाराधीन है. इस मामले में 6 सितंबर को सुनवाई होनी है.

सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता हरिशंकर जैन, विष्णु शंकर जैन के साथ रंजना अग्निहोत्री  ने यह वाद दायर किया है. यह श्री कृष्ण विराजमान वाद मथुरा कोर्ट में 25 सितंबर 2020 को दाखिल हुआ था. यह विवाद कुल मिलाकर 13.37 एकड़ भूमि के मालिकाना हक है, जिसमें से 10.9 एकड़ जमीन श्री कृष्ण जन्मस्थान के पास और 2.5 भूमि शाही ईदगाह मस्जिद के पास है. वाद में कोर्ट ने 4 संस्थाओं को नोटिस दिया है. इनमें श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान, श्री कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट, शाही मस्जिद ईदगाह कमेटी और उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल बोर्ड को दी गई नोटिस शामिल है.

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मथुरा विवाद को समझने के लिए हमें औरंगजेब के समय में जाना होगा

टाइम मशीन होती, तो हम उसमें कालखंड की टाइमिंग सेट करते और आपको मथुरा में मंदिर-मस्जिद विवादों की तह तक लेकर जाते. पर अफसोस, अबतक टाइम मशीन का आविष्कार नहीं हो पाया. इसका भी तोड़ हम इंसानों ने खोजा किताबों में. किताबें हमें इतिहास की सैर कराती हैं और भूतकाल के उन तथ्यों से परिचित कराती हैं, जो हमारे वर्तमान पर हावी हैं और जिनके हिसाब से हमारा भविष्य तय होना होना है. कुल मिलाकर कहानी यह है कि मथुरा के विवाद को समझने के लिए आपको इतिहास में झांकना पड़ेगा. आपको आलमगीर औरंगजेब के जमाने में चलना होगा और इस यात्रा में आपका वाहन बनेगी मशहूर इतिहासकार जदुनाथ सरकार की लिखी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब’ यानी औरंगजेब का इतिहास. घबराइए मत, हम आपको औरंगजेब का पूरा इतिहास नहीं बताएंगे, सीधे मथुरा वाले किस्से पर आएंगे.

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हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब वॉल्यूम 3: बड़े इतिहासकार व्यवस्थित तरीके से लिखते हैं और खूब लंबा लिखते हैं. ऐसे ही एक इतिहासकार हैं जदुनाथ सरकार. इन्होंने ‘हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब’ को पांच वॉल्यूम में लिखा. इस किताब को मुगल शासक औरंगजेब की कहानी के बारे में सर्वाधिक प्रामाणिक कार्यों में से एक में शुमार किया जाता है. अब आप सोच रहे होंगे कि हम सीधे वॉल्यूम 3 की बात क्यों कर रहे हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि यहीं कहानी छिपी है मथुरा विवाद की.

तो आखिर क्या है मथुरा और औरंगजेब की कहानी?

जदुनाथ सरकार की किताब में एक टाइटल है, ‘His destruction of Hindu temples.’ इतिहास की किताब का यह वही पन्ना है, जहां औरंगजेब की कहानी में विलेन तत्व की एंट्री होती है. जदुनाथ सरकार लिखते हैं कि हिंदुस्तान के तख्त पर बैठने के 12 साल बाद यानी 9 अप्रैल 1669 को औरंगजेब एक आदेश जारी करते हैं. इस आदेश में लिखा होता है कि काफिरों (मूर्ति पूजा करने वाले) के सारे स्कूल और मंदिर ध्वस्त कर दिए जाएं और उनके धार्मिक शिक्षाओं और क्रियाकलापों को बंद किया जाए. किताब में आगे लिखा गया है कि औरंगजेब की इस ध्वंसकारी प्रवृत्ति का शिकार बना सोमनाथ में बना दूसरा मंदिर जिसे गजनी के ध्वंस के बाद भीमदेव ने बनवाया था, बनारस का विश्वनाथ मंदिर और केशव राय मथुरा का मंदिर.

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जदुनाथ सरकार लिखते हैं कि पवित्र शहर मथुरा, जिसे कृष्ण की जन्मभूमि के नाम से जाना जाता था, हमेशा से मुस्लिम शासकों के निशाने पर रही. यह शहर औरंगजेब के आगरा-दिल्ली हाइवे पर पड़ता था. कहते हैं कि इस शहर के मंदिरों के भव्य शिखर आगरा के किले से दिखते थे.

इस मंदिर को उस समय वंडर ऑफ एज यानी उस समय का चमत्कार माना जाता था. मथुरा का वह मंदिर जिसे बुंदेला राजा ने तब 33 लाख रुपयों में बनवाया था. इतिहासकारों के मुताबिक 1770 में मराठाओं ने गोवर्धन के युद्ध में मुगलों को शिकस्त दी. इसके बाद मंदिर का पुनर्निमाण कराया गया. बाद में अंग्रेजों के शासनकाल में 1815 में यहां की 13.37 एकड़ जमीन की नीलामी कराई गई. इसे बनारस के राजा पटनीमल ने खरीदा.

मथुरा विवाद में दाखिल याचिका के मुताबिक 1944 में जुगल किशोर बिरला ने यह जमीन राजा पटनीमल के वंशजों से खरीद ली. 1951 में श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट बनाया गया और तय किया गया कि मंदिर का दोबारा भनिर्माण होगा. बाद में यह निर्माण कार्य 1982 में जाकर पूरा हुआ. ट्रस्ट ने 1964 में पूरी जमीन के नियंत्रण के लिए सिविल केस दाखिल किया, लेकिन 1968 में मुस्लिम पक्ष के साथ समझौता हो गया.

क्या धर्मांधता के वशीभूत होकर औरंगजेब ने लिया फैसला?

जदुनाथ सरकार ने अपनी किताब में स्पष्ट रूप से बताया है कि औरंगजेब ने मंदिरों को गिराने का आदेश जारी किया था। हालांकि इतिहासकारों में इस बात को लेकर एकमत नहीं है कि मंदिरों को गिराने के लिए औरंगजेब ने कोई सरकारी फरमान जारी किया था. डॉक्टर बृजेश कुमार श्रीवास्तव की किताब ‘मध्यकालीन भारत का इतिहास’ में डॉक्टर हरिशचंद्र वर्मा के हवाले से बताया गया है कि ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिलता, जिससे इस बात की पुष्टि हो सके कि इस्लाम को न मानने वालों पर रोक लगाने के लिए उनकी पाठशालाओं और मंदिरों को योजनाबद्ध तरीके से नष्ट करने का कोई राजकीय आदेश निकाला गया हो.

इसी किताब में सतीशचंद्र और हरिशचंद्र वर्मा के हवाले से आगे बताया गया है कि औरंगजेब ने गैर मुस्लिम पूजा के स्थानों को भूमि अनुदान और दूसरी प्रकार की सहायतां देना जारी रखा. वृंदावन के प्रसिद्ध मंदिर और देहरादून में सिख गुरुद्वारा इसके उदाहरण हैं. औरंगजेब ने मथुरा और दूसरे स्थानों पर हिंदू मंदिरों को दिए जाने वासे भूमि अनुदानों का नवीनीकरण भी किया.

क्या है वर्तमान विवाद?

मथुरा की अदालत में 25 सितंबर 2020 को श्रीकृष्ण विराजमान वाद दायर किया गया था.  सुनवाई के बाद 30 सितंबर को वाद खारिज हो गया. श्री कृष्ण विराजमान मामले में 12 अक्टूबर को जिला जज की अदालत में अपील दायर की गई. जिला जज की अदालत ने इसे स्वीकार कर चारों प्रतिवादियों को नोटिस जारी किया था. श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान, श्री कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट, शाही मस्जिद ईदगाह कमेटी और उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल बोर्ड को नोटिस जारी की गई है.

मथुरा श्री कृष्ण जन्म भूमि मामले में  जानकारी देते हुए वादी वरिष्ठ अधिवक्ता विष्णु जैन ने बताया अब तक पांच वाद दायर किये जा चुके है. कटरा केशवदेव मन्दिर की 13.37 एकड़ भूमि के एक भाग में बनी शाही मस्जिद ईदगाह को हटाने के संबंध सिविल जज सीनियर डिवीजन नेहा बनौदिया की अदालत में दो वाद एडमिट कर लिए गए हैं. इस प्रकार अब तक कुल पांच वाद दायर हो चुके हैं.

1968 के समझौते पर खड़े किए जा रहे सवाल

दायर वाद में कहा गया है कि श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ के नाम से एक सोसाइटी 1 मई 1958 में बनाई गई थी. इसका नाम 1977 में बदलकर श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान कर दिया गया था. 12 अक्टूबर 1968 को श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ एवं शाही मस्जिद ईदगाह के प्रतिनिधियों में एक समझौता किया गया था. 17 अक्टूबर 1968 को यह समझौता पेश किया गया था और 22 नवंबर 1968 को सब रजिस्ट्रार मथुरा के यहां इसे रजिस्टर किया गया था.

वाद में कहा जा रहा है कि कटरा केशव देव की सम्पूर्ण सम्पत्ति ट्रस्ट की है और श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान को उसका मालिकाना हक नही दिया जा सकता. इसलिए उसके द्वारा किया गया उक्त समझौता जहां अवैध है वहीं कटरा केशव देव की सम्पत्ति पर शाही मस्जिद ईदगाह का किसी प्रकार अधिकार नही हो सकता इसलिए उस पर किया गया निर्माण भी अवैध है. इसी आधार पर शाही मस्जिद ईदगाह को हटाने की बात कही गई है. ऐसे में अब सबकी निगाहें 6 सितंबर को होने वाली सुनवाई पर टिकी हैं.

अगली किस्त में पढ़िए काशी में मंदिर-मस्जिद विवाद की कहानी…

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