कहीं भी कब्र बना दो लेट सकता हूं…लखनऊ, चाय और महबूब की जगह मां पर लिखने वाला शायर ‘मुनव्वर’
‘आपको पता है अब मुझे कुछ लोग आतंकवादी तक कहने लगे है. मैं जब भी सजदा करता हूं तो अपने मुल्क की मिट्टी को चूमता…
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‘आपको पता है अब मुझे कुछ लोग आतंकवादी तक कहने लगे है. मैं जब भी सजदा करता हूं तो अपने मुल्क की मिट्टी को चूमता हूं और आज मैं आतंकवादी हो गया’, इतना बोलते ही बोलते मुनव्वर राना की जुबान लड़खड़ाने लगी और उन्होंने चुप्पी साध ली. कुछ देर बाद फिर उन्होंने बोला..मैं अपने आपको इतना समेट सकता हूं, कहीं भी कब्र बना दो लेट सकता हूं.
लखनऊ, चाय और ‘मुन्नवर’
ये किस्सा साल 2022 के जनवरी का है जब उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ का माहौल पूरा सियासी था. बनारस की तरह यहां मुझे कोई पप्पू की चाय की दुकान तो मुझे नजर नहीं आई, जहां चाय प्यालियां लड़ाते हुए लोग सीट का बंटवारा कर दे और अगले पल ही सरकार बनाने का फैसला सुना दे. हांलाकि लखनऊ में गंज है जहां शर्मा से लेकर विश्वकर्मा तक कई चाय की दुकानें और वहां झोला भर लोग प्यालियां लड़ाने नहीं बस चाय पीने आते हैं. वही गंज से कुछ दूरी पर है हुसैनगंज. इसी हुसैनगंज में ही बेबाक कलम के मालिक मुनव्वर राना रहते थे. 14 जनवरी की देर शाम लखनऊ की एक अस्पताल में उन्होंने आखिरी सांस ली.
मुनव्वर राना से मिलने जब मैं उनके घर पहुंचा तो पहली दफा उन्हें लगा कि मीडिया से जुड़ा हुआ कोई व्यक्ति आया है जो यूपी चुनाव को लेकर उनसे कुछ सियासी सवाल पूछेगा और फिर जवाब मिलते ही चलता बनेगा. उन्हें इस बात का यकीन दिलाने में थोड़ समय लगा कि मैं मीडिया से जरुर जुड़ा हूं पर आपसे कोई सियासी सवाल करने नहीं बल्कि मिलने आया हूं. लखनऊ के जिस अपार्टमेंट में राना साहब रहते थे उसके ग्राउंड फ्लोर पर ही उन्होंने अपना एक कमरा बनाया हुआ था. घुटने की दर्द की वजह से उन्हें सीढ़ियां चढ़ने में दिक्कत होती थी. उनके कमरे में बस दो ही चीजें चारों तरफ दिख रही थी एक तो दवाइंया और दूसरी किताबें.
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नालियों में बहती सियासत…
अभी बातचीत का दौर शुरु ही हुआ था कि मुनव्वर साहब को याद आ गया कि एक बयान की वजह से सोशल मीडिया पर उन्हें किसी ने आतंकवादी लिख दिया था. इस बात से वो काफी नाराज और गुस्से में थे. उन्होंने कहा कि मेरे मुश्यारों में मां अपने बच्चों को अच्छी बातें और अदब सीखने को भेजती थी और आजकल के बच्चे मुझे राजनीति में पड़कर आतंकवादी तक बना दिया. उन्हें शायद ये नहीं पता की मैं रायबरेली से आता हूं, जहां की नालियों में सियासत बहती है. पर मैंने आज तक किसी राजनीतिक पार्टी की एक प्याली चाय तक नहीं पी है. वहीं अपनी दो बेटियों का जिक्र करते हुए वह ये भी बताते हैं कि मेरी एक बेटी सपा से जुड़ी है और एक कांग्रेस से. पर अपनी शादी के बाद उन्होंने ये फैसला किया, जिसमें मेरा कोई भी दखल नहीं है.
मां, शायरी और मुनव्वर राना
कहते हैं कि एक अच्छा आर्टिस्ट वही होता है, जो ऑडिएंस के दिल की बात पढ़कर उसके मौजूदा हालातों, ख्वाबों, बातों और खयालातों में ढाल दे और ये सब मुनव्वर राना के कलाम में बखूबी झलकता था. यों तो उन्होंने हजारों गज़लें कही हैं, पर उन्हें शोहरत मिली मां और अपनी जज़्बाती शायरी के कारण. मां पर लिखे गए शायरी पर बात करते हुए मुनव्वर राना ने बताया कि, ‘मैंने बचपन मे देखा था कि मां हम सभी बच्चों की कैसे हीफाजत करती थी. मेरे अब्बा ट्रक चलाते थे तो कई दिनों तक घर से बाहर रहते हैं उस दौरान मां रात भर जागकर हमलोगों की देखभाल करती थी. उस दौर में गरीबी बहुत थी पर मेरी मां खुद खाए या ना खाए पर हम बच्चों को जरुर खाना खिलाती थी.’
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ये किस्सा सुनाते हुए उन्होंने शेर पर पढ़ा कि, ‘मेरी ख्वाहिश है कि फिर से मैं फरिश्ता हो जाऊं, मां से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊं… कम-से कम बच्चों के होठों की हंसी की ख़ातिर, ऐसी मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊं’ अपनी इसी ख्वाहिश को पूरा करने के लिए मुनव्वर राना फरिश्ता बन मां से लिपटने के लिए इस दुनिया को अलविदा कह गए.
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