
उत्तर प्रदेश में इस वक्त आजमगढ़ उपचुनाव को लेकर माहौल गर्म है. समाजवादी पार्टी ने धर्मेंद्र यादव को मैदान में उताकर गढ़ को बचाने की कोशिश की है, तो बीजेपी दिनेश लाल यादव निरहुआ के जरिए यादव वोट बैंक में सेंधमारी की ताक में है. वहीं, बसपा शाह आलम गूड्डू जमाली के जरिए दलित-मुस्लिम कॉर्ड खेल रही है. सबके अपने दावे हैं. ऐसे में यूपी तक आपको बताएगा, आंकड़ें और जमीनी समीकरण क्या कहते हैं.
दरअसल, आजमगढ़ की जमीन हमेशा सोशलिस्ट विचारधारा से ही प्रेरित रही है. यहां कभी सपा-तो कभी बसपा का वर्चस्व देखने को मिला. 1989 से लेकर 2019 तक यहां सिर्फ दो बार ऐसा हुआ, जब बसपा-सपा के अलावा किसी अन्य पार्टी की एंट्री हुई. 1991 में एक बार यहां जनता दल को जीत मिली थी, तो दूसरी बार 2009 में यहां से बीजेपी जीती थी. जातीय समीकरण की बात करें, तो जिले में 15 फीसदी मुस्लिम आबादी है. दलित आबादी 25 फीसदी के करीब है.
अगर वोट के हिसाब से देखें, तो एक अनुमान के मुताबिक, करीब साढ़े चार लाख यादव वोटर्स हैं. वहीं, तीन-तीन लाख के करीब मुस्लिम और दलित वोटर्स भी हैं. इसके अलावा राजभर, मौर्या, कुर्मी और चौहानों की संख्या अच्छी है. इसके अलावा राजपूत समुदाय के लोग भी ठीक-ठाक संख्या में हैं. आंकड़ों का तो अपना गणित हैं, लेकिन असली खेल तो जमीन पर खेला जा रहा है.
ऐसे में जमीन हालात समझने के लिए हमारे सहयोगी राजीव कुमार ने बात की स्थानीय पत्रकार राकेश श्रीवास्तव. उनका अपना मानना है कि धर्मेंद्र यादव का मामला सेट है. आजमगढ़ में अगर पिछले चुनाव तीन चुनावों की बात करें, तो 2019 में सपा से अखिलेश यादव जीते थे. 2014 में यहां से मुलायम सिंह यादव जीते थे. हालांकि, 2009 में बीजेपी के टिकट से रमाकांत यादव ने बाजी मारी थी, जो अब सपा के टिकट पर विधायक हैं.
कहते हैं कि 2019 के चुनावों में निरहुआ ने बड़ी मेहनत की थी, लेकिन सपा-बसपा गठबंधन में उनकी दाल नहीं गली. ऐसे में स्थानीय पत्रकार अशोक वर्मा का कहना है कि इस बार बीजेपी के लिए यह राह आसान नहीं है. कुल मिलकार अगर जातीय आंकड़ें और स्थानीय पत्रकारों की मानें, तो उन्हें फिलहाल आजमगढ़ में धर्मेंद्र यादव का पलड़ा भारी नजर आ रहा है.