गार्जियन, प्रतिद्वंदी और अब साथी: चाचा शिवपाल और अखिलेश के रिश्ते की दिलचस्प कहानी

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16 दिसंबर 2021. समाजवादी पार्टी (एसपी) चीफ अखिलेश यादव अपने चाचा और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) के अध्यक्ष शिवपाल यादव से मिलने उनके लखनऊ स्थित घर पहुंचते हैं. कुछ ही पलों में यह बात मीडिया की बड़ी खबर बन जाती है और इस मुलाकात को लेकर अटकलों का दौर तेज हो जाता है. यह अटकलबाजी ज्यादा वक्त तक जिंदा रह पाती, उससे पहले ही अखिलेश ने मुलाकात खत्म होने के बाद ट्वीट कर एक बड़ा ऐलान किया.

अखिलेश ने लिखा, ”प्रसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जी से मुलाकात हुई और गठबंधन की बात तय हुई.”

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उत्तर प्रदेश की सियासत में इन चाचा- भतीजे के फिर से साथ आने का जो भी असर पड़े, लेकिन दोनों के बीच ‘सुलह’ होना भी कोई छोटी बात नहीं है. इस बात को समझने के लिए आपको वक्त के साथ कई करवट लेते इन दोनों के रिश्ते की दिलचस्प कहानी पर नजर दौड़ानी होगी. तो चलिए अखिलेश के बचपन से इस कहानी की शुरुआत करते हैं:

जब शिवपाल ने निभाई थी अखिलेश के ‘गार्जियन’ की भूमिका

उत्तर प्रदेश के सैफई में जन्मे अखिलेश के बचपन का नाम टीपू था. टीपू जब चार साल के होने वाले थे तो उनके पिता मुलायम सिंह (समाजवादी पार्टी के संस्थापक) को टीपू की पढ़ाई की चिंता हुई. उस वक्त इटावा का सेंट मेरी स्कूल पूरे इलाके में सबसे अच्छा स्कूल माना जाता था. ऐसे में टीपू का दाखिला इसी स्कूल में कराने का फैसला लिया गया.

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1977 की गर्मियों में टीपू को इटावा भेज दिया गया. इससे बहुत पहले ही मुलायम इटावा के चौबुर्जी इलाके में किराए पर एक छोटा सा घर ले चुके थे. टीपू के यहां पहुंचने से पहले इस घर में कुल चार लोग रहते थे- मुलायम के छोटे भाई राजपाल यादव, उनकी पत्नी प्रेमलता यादव, मुलायम के सबसे छोटे भाई शिवपाल यादव और शिवपाल यादव की पत्नी सरला यादव.

राजपाल इटावा में भंडारगृह निगम में नौकरी करते थे, जबकि शिवपाल इटावा में रहकर पढ़ाई कर रहे थे और मुलायम के सियासी कामकाज में उनका हाथ बंटाते थे. टीपू के दाखिले का जिम्मा परिवार के करीबी दोस्त एसएन तिवारी को सौंपा गया. तिवारी इटावा में अधिवक्ता थे. शिवपाल के साथ तिवारी बच्चे टीपू को लेकर स्कूल पहुंचे.

क्लास टीचर ने दाखिले की प्रक्रिया शुरू की, छोटे बच्चे का नाम पूछा गया. शिवपाल यादव कुछ बोलते उससे पहले ही बच्चे ने अपना नाम टीपू बताया. शिवपाल और तिवारी की तरफ देखकर स्कूल के शिक्षक ने कहा कि यह तो घर में बुलाने वाला नाम है, बच्चे का स्कूल में क्या नाम लिखा जाएगा? तिवारी ने शिवपाल सिंह की ओर देखा, लेकिन अब तक टीपू का दूसरा नाम रखा ही नहीं गया था तो भला शिवपाल क्या जवाब देते? अब जबकि टीपू स्कूल में दाखिले के लिए पहुंचे थे, तब वहीं उनके लिए नाम खोजा जाने लगा. तिवारी ने टीपू को कई नाम सुझाए, जिसमें से अखिलेश नाम टीपू को पसंद आ गया. 1977 से 1980 तक टीपू सैंट मेरी स्कूल में पढ़े.

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इसके बाद धौलपुर के जिस मिलिट्री स्कूल में अखिलेश की पढ़ाई हुई, उसमें इंटरव्यू के लिए अखिलेश अपने चाचा शिवपाल के साथ धौलपुर गए थे. इंटरव्यू के बाद अखिलेश को इस स्कूल में छोड़ने के लिए भी शिवपाल उनके साथ गए थे. छुट्टियों में अखिलेश को स्कूल से लाने और फिर वापस स्कूल पहुंचाने का जिम्मा भी ज्यादातर शिवपाल और उनकी पत्नी का होता था. संजय लाठर ने अपनी किताब ‘समाजवाद का सारथी’ में ये बातें लिखी हैं.

अखिलेश की राजनीति में एंट्री और शिवपाल के साथ ‘वर्चस्व की लड़ाई’

अखिलेश ने साल 2000 में कन्नौज की लोकसभा सीट के उपचुनाव को जीतकर अपने चुनावी राजनीतिक करियर की शुरुआत की. इसके बाद साल 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में भी अखिलेश इसी सीट से जीते.

साल 2009 में अखिलेश को शिवपाल की जगह समाजवादी पार्टी का उत्तर प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया. यह वो मौका था, जहां से अखिलेश का पार्टी में कद बढ़ना शुरू हुआ. इसके बाद 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव में जब समाजवादी पार्टी को बड़ी जीत हासिल हुई तो अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने. शिवपाल अखिलेश की इस सरकार में मंत्री बने. ये दोनों ही नेता मुलायम की विरासत को आगे संभालने की रेस में थे, और अखिलेश की राजनीति में एंट्री के बाद साफ तौर पर वह ही इस रेस के विजेता के तौर पर उभरते दिख रहे थे.

शिवपाल और अखिलेश के बीच सियासी वर्चस्व की लड़ाई साल 2016 में गहराने लगी और खुलकर सामने भी आने लगी. इस लड़ाई में अखिलेश ने न सिर्फ शिवपाल के पर कतरे थे, बल्कि उनके विश्वासपात्र मंत्रियों को भी बर्खास्त किया था. वहीं शिवपाल ने भी अखिलेश की मर्जी के खिलाफ जाकर कुछ कदम उठाए थे. चलिए दोनों के विवाद की बड़ी वजहों पर एक नजर दौड़ा लेते हैं:

  • अखिलेश की मर्जी के खिलाफ शिवपाल ने बाहुबली मुख्तार अंसारी के परिवार की पार्टी कौमी एकता दल का समाजवादी पार्टी में विलय कराया. शिवपाल ने इस विलय का औपचारिक ऐलान करते हुए कहा था कि इससे एसपी मजबूत होगी. उधर इस विलय की घोषणा के बाद अखिलेश ने वरिष्ठ मंत्री बलराम यादव को बर्खास्त कर दिया था, जिन्होंने विलय में अहम भूमिका निभाई थी. इस लड़ाई में आखिर में अखिलेश की जीत हुई, जब समाजवादी पार्टी ने कौमी एकता दल के विलय को रद्द कर दिया. यह जून 2016 की घटना थी.

  • सितंबर 2016 में अखिलेश ने शिवपाल के करीबी माने जाने वाले मुख्य सचिव दीपक सिंघल को हटा दिया था. इसे भी अखिलेश और शिवपाल के बीच विवाद की एक कड़ी के तौर पर देखा जाता है.

  • इन दोनों के बीच का विवाद जब सार्वजनिक हो रहा था, तभी मुलायम सिंह ने अखिलेश को हटाकर शिवपाल को एसपी का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया. इसके बाद अखिलेश ने शिवपाल से अपनी सरकार के अहम विभाग ले लिए. ऐसे में शिवपाल जब अखिलेश सरकार में पूरी तरह ताकतविहीन नजर आने लगे तो उन्होंने कैबिनेट और पार्टी के पदों से इस्तीफा दे दिया.

  • 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले उम्मीदवारों के चयन को लेकर भी अखिलेश और शिवपाल के बीच विवाद की खबरें सुर्खियां बनी थीं.

सियासी वर्चस्व की लड़ाई में शिवपाल तब भी पिछड़ गए, जब साल 2017 शुरू होते ही औपचारिक तौर पर समाजवादी पार्टी की कमान अखिलेश के हाथों में आ गई यानी अखिलेश पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए. मुलायम सिंह कई बार इन दोनों के विवाद को खत्म करने की कोशिश में दिखे थे, मगर उन्हें इसमें कामयाबी नहीं मिली. इसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव के नतीजों में समाजवादी पार्टी महज 47 सीटों पर सिमट गई, जिसने पिछले चुनाव में 224 सीटें जीती थीं.

माना जाता है कि एसपी के इस खराब प्रदर्शन की एक वजह अखिलेश और शिवपाल की लड़ाई भी बनी थी, खासकर इटावा, कन्नौज, मैनपुरी और औरैया जैसे जिलों में, जहां एसपी मजबूत मानी जाती है. कहा जाता है कि शिवपाल ने नाराजगी के चलते अपनी सीट के अलावा बाकी सीटों पर एसपी को जिताने के लिए जोर नहीं लगाया था. बता दें कि 2017 के विधानसभा चुनाव में शिवपाल एसपी के टिकट पर ही जसवंतनगर से जीते थे. शिवपाल ने चुनाव के दौरान ही ऐलान किया था कि वह नतीजों के बाद नई पार्टी बनाएंगे.

शिवपाल ने पहले अपना फ्रंट समाजवादी सेक्युलर मोर्चा बनाया फिर (2018 में) प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) बनाई. एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, शिवपाल ने 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद दावा किया था, ”अगर अखिलेश मेरा समर्थन करते तो कम से कम 25 सीटों पर लोकसभा चुनाव जीत जाते.”

2019 के लोकसभा चुनाव में शिवपाल फिरोजाबाद सीट से लड़े थे. वह खुद तो नहीं जीत सके, लेकिन नतीजों के आंकड़ों के आधार पर माना जाता है कि उनकी वजह से एसपी यह सीट हार गई. दरअसल इस सीट पर बीजेपी की जीत हुई थी, बीजेपी और एसपी को मिले वोटों का अंतर 28781 रहा था. वहीं शिवपाल को 91869 वोट मिले थे.

अब जब अखिलेश ने शिवपाल के साथ गठबंधन का ऐलान कर दिया है तो यह देखना दिलचस्प रहेगा कि 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में दोनों पिछले दिनों की आपसी कड़वाहट भुलाकर एक-दूसरे का कितना साथ दे पाएंगे और चुनावी नतीजों पर कितना असर डाल पाएंगे.

UP चुनाव: चाचा शिवपाल से मिलकर अखिलेश यादव बोले- ‘गठबंधन की बात तय हुई’

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