UP: विपक्षी दलों के चुनावी मंच से घटती मुस्लिम सियासत, हिंदू वोटों के खिसकने का डर?

कुमार अभिषेक

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उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक दल जोरशोर से अपने अभियानों को आगे बढ़ाने में लगे हैं. इस बीच, एक तरफ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) अपनी सत्ता को बरकरार रखने की जद्दोजहद करती दिख रही है, तो दूसरी तरफ विपक्षी दलों ने योगी आदित्यनाथ सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए मोर्चा खोल रखा है.

मगर सूबे में बीजेपी ने हिंदुत्व का ऐसा सियासी एजेंडा सेट किया है, जिसके चलते अपने आपको सेक्युलर कहने वाली विपक्षी पार्टियां इस बार खुलकर ‘मुस्लिम कार्ड’ खेलने से परहेज कर रही हैं. सूबे में बहुसंख्यक वोट खिसकने के डर से विपक्षी दलों के चुनावी मंचों से इस बार मुस्लिम सियासत घटती नजर आ रही है.

मंच चाहे समाजवादी पार्टी (एसपी) अध्यक्ष अखिलेश यादव का हो, कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी का या बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) सुप्रीमो मायावती का या फिर छोटे दलों का हो, लगभग सभी मंचों पर प्रमुखता से जो मुस्लिम चेहरे या मुस्लिम प्रतीक पहले दिखाई देते थे वे इन दिनों लगभग गायब हैं.

हालांकि, मंच पर प्रियंका गांधी ललाट पर बाबा विश्वनाथ के चंदन के साथ हुंकार भरती दिखीं, तो अपने हालिया भाषण की शुरुआत से पहले उन्होंने दुर्गा सप्तशती के मंत्र उच्चारण से लोगों को जता दिया कि उनके हिंदुत्व को या उनके हिंदू होने की प्रतिबद्धता को कम ना समझा जाए, हालांकि यह मंच पूरी तरीके से सियासी था. सलमान खुर्शीद जैसे बड़े मुस्लिम चेहरे भी आगे की कतार में दिखाई तो दिए लेकिन दूर-दूर.

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अखिलेश की सभाओं में और समाजवादी पार्टी के पोस्टर में जहां पहले मुस्लिम टोपी में नेता नजर आते थे, वहीं अब नेताओं की तस्वीर हो या खुद नेता मौजूद हों, मुसलमानों की प्रतीक वाली जालीदार टोपी सियासत से गायब दिख रही है. एसपी ने उसे अपनी लाल टोपी में तब्दील कर दिया है और पार्टी के मुस्लिम नेता अब जालीदार टोपी की जगह लाल टोपी में ही दिखाई दे रहे हैं.

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कुछ यही हाल कांग्रेस की सभाओं का भी है. कांग्रेस की सभाओं में मुसलमानों की तादाद तो दिखी, लेकिन वे अपने मुस्लिम प्रतीकों से दूर दिखाई दिए. नमाजी टोपी या जालीदार टोपी इस बार कांग्रेस की सभा से भी नदारद दिखाई दी है.

2022 की चुनावी रणभूमि में बीजेपी को मात देने के इरादे से विपक्षी दल खुलकर मैदान में उतर चुके हैं. नवरात्र के पहले दिन अपने खोए हुए सियासी जनाधार को वापस पाने के लिए राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) प्रमुख जयंत चौधरी ने अपने दादा पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की जन्मस्थली हापुड़ के नूरपुर से जन आशीर्वाद यात्रा शुरू की तो मायावती ने कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस पर 9 अक्टूबर को मिशन-2022 का आगाज किया.

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सूबे में तीन दशक से सत्ता से बाहर कांग्रेस के लिए सियासी जमीन तलाश रहीं प्रियंका गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गढ़ वाराणसी से चुनावी बिगुल फूंका. वहीं, एसपी प्रमुख अखिलेश यादव ने 12 अक्टूबर को राम मनोहर लोहिया की पुण्यतिथि पर ‘समाजवादी विजय यात्रा’ शुरू की, जिसके जरिए वह कानपुर-बुंदेलखंड इलाकों के जिलों का दौरा कर सियासी नब्ज की थाह लेते नजर आए.

हालांकि, इस बार इन तमाम विपक्षी दलों की सियासत बदली-बदली नजर आ रही है. इनके चुनावी मंचों से मुस्लिम सियासत घटती नजर आईं. न तो मायावती के चुनावी मंच पर कोई मुस्लिम नेता दिखा और न ही अखिलेश यादव के विजय रथ पर कोई मुस्लिम सारथी बना. पश्चिम यूपी में जन आशीर्वाद लेने निकले जयंत चौधरी के साथ भी कोई मुस्लिम नेता नजर नहीं आ रहा है.

उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्रा कहते हैं, ”2014 चुनाव के बाद से देश का राजनीतिक पैटर्न पूरी तरह से बदल गया है, देश में अब बहुसंख्यक समाज केंद्रित राजनीति हो गई है और इस फॉर्मूले के जरिए बीजेपी लगातार चुनाव जीत रही है. यूपी में सिर्फ मुस्लिम वोटों के सहारे कुछ सीटें तो जीती जा सकती हैं, लेकिन सूबे में सरकार नहीं बनाई जा सकती है. ऐसे में बीजेपी खुलकर हिंदुत्व कार्ड खेलती रही है और विपक्षी दलों पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाती रही है.”

वह कहते हैं, ”नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ जैसे हिंदुत्व के चेहरों को आगे कर बीजेपी चुनाव लड़ रही है, जिसके सामने विपक्षी दलों को मुस्लिम सियासत करने में बहुसंख्यक हिंदू वोटरों के ध्रुवीकरण होने का साफ खतरा दिख रहा है. ऐसे में विपक्षी दल खुलकर इस बार मुस्लिम कार्ड खेलने से बच रहे हैं. यूपी में अब अस्सी और नब्बे के दशक जैसी राजनीति नहीं रह गई. इसी के चलते वो अपने चुनावी मंचों पर भी मुस्लिम नेताओं को पहले की तरह अहमियत देने से बच रहे हैं.”

वहीं, वरिष्ठ पत्रकार सैय्यद कासिम कहते हैं कि यूपी में एसपी, बीएसपी और कांग्रेस मुस्लिमों का वोट तो लेना चाहती हैं, लेकिन मुस्लिम लीडरशिप को आगे नहीं बढ़ना देना चाहती हैं. उन्होंने कहा, ”तथाकथित सेक्युलर दलों के चुनावी एजेंडे में भी इस बार मुस्लिम शामिल नहीं हैं. इसीलिए न तो मुस्लिमों के मुद्दे पर कोई बात कर रहा है और न ही मुस्लिम नेताओं को अपने साथ लेकर चल रहे हैं. उन्हें लगता है कि मुस्लिमों के साथ खड़े नजर आए तो हिंदू वोटर के छिटकने का डर है. ऐसे में विपक्षी दल के एजेंडे से मुस्लिम सियासत घटती जा रही है.”

उत्तर प्रदेश में 2017 के चुनाव के पहले तमाम पार्टियां मस्लिमों के इर्द-गिर्द अपनी सियासत करती रही हैं. मुस्लिम वोटों को साधने के लिए तमाम बड़े वादे करने के साथ-साथ मौलाना और उलेमाओं का भी सहारा लेती रही हैं, पर बीजेपी के सियासी पटल पर मजबूत होने के बाद मुस्लिम सियासत हाशिए पर खड़ी नजर आ रही है. एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी जरूर मुस्लिम वोटों के सहारे सूबे में सियासी जमीन आधार तलाश रहे हैं.

वहीं, बीएसपी के पास मौजूदा समय में कोई बड़ा मुस्लिम नेता ही नहीं है. नसीमुद्दीन सिद्दीकी मायावती के मंचों पर साथ में नजर आते थे, लेकिन अब वह पार्टी छोड़कर कांग्रेस में चले गए हैं. आजम खान एक समय एसपी में बड़ा मुस्लिम चेहरा माने जाते थे और सूबे में उनकी राजनीतिक तूती बोलती थी, लेकिन वह इन दिनों जेल में बंद हैं. उनके अलावा कोई दूसरा बड़ा नेता नहीं है. हालांकि, अखिलेश ने अपने ‘समाजवादी विजय रथ’ पर उनकी तस्वीर लगा रखी है, लेकिन पार्टी दूसरे मुस्लिम नेताओं को आगे नहीं बढ़ा रही है. आरएलडी में भी कोई बड़ा मुस्लिम नेता नहीं है, जिसे लेकर जयंत चौधरी पश्चिम यूपी में घूम सकें.

कांग्रेस में मुस्लिम नेता के तौर पर सलमान खुर्शीद, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, इमरान मसूद जरूर कद्दावर चेहरा हैं, लेकिन इनमें से कोई भी नेता ऐसा नहीं है जो प्रभावी तौर पर मुस्लिमों को जोड़ सके. वाराणसी रैली में मंच पर प्रियंका गांधी के एक तरफ छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल और दूसरी तरफ प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू बैठे नजर आए. सलमान खुर्शीद को मंच पर जगह तो मिली, लेकिन प्रियंका गांधी से पांच सीट दूर जबकि एक दौर में कांग्रेस में मुस्लिम सियासत केंद्र बिंदु में हुआ करती थी.

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