अचानक कैसे हुआ 3 कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला? पढ़िए किस तरह बदल गया BJP का रुख

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‘‘आज गुरु नानक देव जी का पवित्र प्रकाश पर्व है. यह समय किसी को भी दोष देने का नहीं है. आज मैं आपको… पूरे देश को… यह बताने आया हूं कि हमने तीन कृषि कानूनों को वापस लेने का निर्णय लिया है. इस महीने के अंत में शुरू होने जा रहे संसद सत्र में, हम इन तीनों कृषि कानूनों को रिपील (निरस्त) करने की संवैधानिक प्रक्रिया को पूरा कर देंगे.’’

19 नवंबर की सुबह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जैसे ही यह बात कही, सोशल मीडिया से लेकर खबरिया चैनलों और पोर्टलों पर हलचल तेज हो गई, राजनीतिक बयानों की बाढ़ आ गई और इस सबके बीच एक सवाल बार-बार उठने लगा कि कई महीनों के आंदोलन के बीच एक समय कदम पीछे न खींचने का संकेत देने वाली मोदी सरकार आखिर अचानक तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए तैयार कैसे हो गई?

अलग-अलग पहलुओं के आधार पर इस सवाल के कई जवाब हो सकते हैं, मगर दूसरे किसी जवाब से पहले जान लेते हैं कि सरकार का जवाब क्या है.

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19 नवंबर की सुबह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राष्ट्र के नाम संबोधन होता है. इस दौरान वह कहते हैं कि उनकी सरकार किसानों, खासकर छोटे किसानों के कल्याण और कृषि जगत के हित में और गांव-गरीब के उज्ज्वल भविष्य के लिए ‘‘पूरी सत्य निष्ठा’’ और ‘‘नेक नीयत’’ से तीनों कानून लेकर आई थी लेकिन अपने तमाम प्रयासों के बावजूद ‘कुछ किसानों’ को समझा नहीं पाई.

प्रधानमंत्री ने कहा, ”मैं आज देशवासियों से क्षमा मांगते हुए सच्चे मन से और पवित्र हृदय से कहना चाहता हूं कि शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रही होगी, जिसके कारण दिये के प्रकाश जैसा सत्य कुछ किसान भाइयों को हम समझा नहीं पाए हैं.’’

उन्होंने कहा कि इन कानूनों की मांग बरसों पुरानी थी और संसद में चर्चा और मंथन के बाद इन्हें लाया गया था. पीएम मोदी ने कहा, ‘‘देश के कोने-कोने में कोटि-कोटि किसानों ने, अनेक किसान संगठनों ने, इसका स्वागत किया, समर्थन किया. मैं आज उन सभी का बहुत आभारी हूं.’’

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मतलब, एक ऐसे वक्त में जब विपक्ष और किसान संगठनों का दावा है कि किसान आंदोलन में मोदी सरकार के अड़ियल रुख की वजह से सैकड़ों किसानों की जान चली गई, तब तमाम किसान संगठनों के साथ कई राउंड की बातचीत नाकाम रहने के बाद अचानक से तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने के ऐलान पर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की अगुवाई वाली सरकार ने एक जवाब देने की कोशिश की है. जवाब यह कि वो तो ‘नेक नीयत’ से कानून लाई थी, जो किसानों के हित में थे, लेकिन ‘कुछ किसान’ उसकी इस ‘नेक नीयत’ को समझ नहीं पाए और अब इन कानूनों को वापस लिया जा रहा है.

मगर क्या इन कानूनों को वापस लेने के फैसले की यही वजह है, या फिर असल वजह अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में छिपी है? दरअसल अगले साल जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें से पंजाब और उत्तर प्रदेश के चुनावों पर किसान आंदोलन का बड़ा असर पड़ना लगभग तय माना जा रहा था. पंजाब में बीजेपी ज्यादा प्रभावी हालत में है नहीं, अब बचा उत्तर प्रदेश. तो उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में जहां लोकसभा की 80 सीटें हैं, और विधानसभा की 403 सीटें, यहां सत्तारूढ़ बीजेपी के पास खोने के लिए काफी कुछ है.

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दिल्ली की सीमाओं पर तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करवाने की मांग के साथ नवंबर 2020 से जारी किसान आंदोलन की धमक पहले तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित मानी जा रही थी, लेकिन वक्त के साथ इसका दायरा उत्तर प्रदेश के दूसरे हिस्सों में भी फैलता दिखने लगा.

जब तक किसान आंदोलन का असर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सीमित माना जा रहा था, उस वक्त तक बीजेपी भी आक्रामक भूमिका में दिख रही थी.

यूपी के डिप्टी सीएम और बीजेपी नेता केशव प्रसाद मौर्य ने 19 सितंबर को कहा था, “यूपी में क्या किसी किसान आंदोलन की जरूरत है? मुझे पता है ये किसान आंदोलन नहीं है, ये चुनाव आंदोलन है. जिस आंदोलन के पीछे एसपी-बीएसपी-कांग्रेस समेत तमाम विरोधी दल और उसके नेता लगे हुए हैं, उस आंदोलन का किसान पहले भी हमारे साथ था और आज भी है. जिनकी दलाली बंद हो गई है, वे नाराज हैं.”

इससे पहले 29 जुलाई के बीजेपी उत्तर प्रदेश के इस ट्वीट को भी देखिए.

बात केंद्र में बीजेपी के रुख की करें तो अंग्रेजी अखबार द इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि फरवरी में पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारियों की बैठक में स्वीकृत एक प्रस्ताव ने न केवल तीन नए कृषि कानूनों को ‘किसानों के हित में’ बताकर उचित ठहराया था, बल्कि उन्हें लागू करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी सराहना भी की थी.

लंबे वक्त तक बीजेपी का जोर जहां एक तरफ इन कानूनों को सही ठहराने पर दिखा, वहीं दूसरी तरफ यह साबित करने में भी कि इन कानूनों के खिलाफ जो आंदोलन जारी है, वो कहीं न कहीं विपक्ष की राजनीति से प्रभावित है. ऊपर केशव प्रसाद मौर्य का जो बयान दिया गया है, उसमें भी इस बात की झलक देखी जा सकती है. ऐसे में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार को यह डर भी रहा होगा कि इन कानूनों पर एक सख्त स्टैंड लेने के बाद और किसान संगठनों के साथ बातचीत लगभग रुकने के बाद, अगर वो इन कानूनों को वापस लेती है तो विपक्ष इसे अपनी जीत के तौर पर भी भुना सकता है.

मगर, इसी बीच उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन की पहुंच बढ़ती जा रही थी. भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) के नेता राकेश टिकैत ने ऐलान किया कि केंद्र के तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ पूर्वांचल क्षेत्र में प्रदर्शन और तेज किया जाएगा. टिकैत ने यह भी कहा कि दिल्ली की सीमाओं पर कृषि कानून के विरोध में प्रदर्शन के एक साल पूरा होने से चार दिन पहले 22 नवंबर को लखनऊ में किसान महापंचायत होगी.

मतलब, मुजफ्फरनगर किसान महापंचायत में आंदोलनकारी किसानों की भारी भीड़ जुटने के बाद जिस आंदोलन का असर सिर्फ पश्चिमी यूपी तक ही सीमित माना जा रहा था, वो अब पूर्वांचल की तरफ भी बढ़ता दिख रहा था. पूर्वांचल वो क्षेत्र है, जहां समाजवादी पार्टी (एसपी) और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) के गठबंधन की वजह से पहले से ही बीजेपी के सामने बड़ी चुनौती है. एसपी और एसबीएसपी भी लगातार किसानों के मुद्दे पर बीजेपी को घेर रही थीं. उधर लखीमपुर खीरी में 3 अक्टूबर को किसानों को गाड़ी से कुचले जाने की घटना के बाद भी बीजेपी लगातार विपक्ष के निशाने पर है. इन तमाम पहलुओं के मद्देनजर बीजेपी को इस बात का अंदाजा जरूर होगा कि अगर यूपी में किसान आंदोलन की पहुंच बढ़ेगी तो जाहिर तौर पर उसे इसका बड़ा सियासी नुकसान हो सकता है.

शायद इसीलिए बीजेपी के रुख में तब बदलाव दिखा, जब नवंबर में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति की ओर से स्वीकृत प्रस्ताव में तीन कृषि कानूनों का जिक्र नहीं किया गया, जबकि इसमें किसानों के लिए उठाए गए दूसरे कदमों का जिक्र था.

अभी यूपी के जिन दो क्षेत्रों – पश्चिमी यूपी और पूर्वी यूपी – की बात हुई है, उनको लेकर बीजेपी अपनी रणनीति बनाने में भी काफी गंभीर दिख रही है. न्यूज एजेंसी पीटीआई की एक रिपोर्ट में सूत्रों के हवाले से बताया गया है कि बीजेपी के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर ध्यान देंगे. माना जा रहा है कि किसानों के आंदोलन को लेकर इस क्षेत्र के जाट लोगों की कथित नाराजगी से पार्टी की चुनावी संभावनाओं को नुकसान पहुंच सकता है. वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी बीजेपी के वरिष्ठ नेता राजनाथ सिंह को दिए जाने की खबरें हैं.

ऐसे में तीन कृषि कानूनों को वापस लिए जाने के फैसले पर बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार का जवाब कुछ भी हो, मगर तमाम सियासी पहलुओं के मद्देनजर उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाला विधानसभा चुनाव भी इस फैसले की बड़ी वजह माना जा रहा है.

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