सीएम योगी का ‘अब्बा जान’ बयान: यूपी चुनाव 2022 में क्या होगा इसका असर? एक्सपर्ट से जानिए

संजय शर्मा

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यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ इन दिनों अपनी नई शब्दावली के लिए चर्चा में हैं. पिछले कुछ दिनों उनके संबोधनों में लगातार ‘अब्बा जान’ का जिक्र आ रहा है. सीएम योगी ने सबसे पहले आजतक के एक कार्यक्रम में इस शब्दावली का इस्तेमाल किया और अबतक वह ऐसा कई बार कर चुके हैं. विपक्ष का आरोप है कि यूपी चुनाव 2022 को देखते हुए सीएम धार्मिक भावनाएं भड़काने की कोशिश कर रहे हैं, तो बीजेपी कह रही है कि ‘अब्बा जान’ कहने में गलती क्या है. हमने सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (CSDS) के सह निदेशक प्रोफेसर संजय कुमार से बात कर जानना चाहा कि आखिर इस शब्दावली के असल राजनीतिक निहितार्थ क्या हैं.

यूपी के लिए ‘अब्बा जान’ का क्या है सियासी अर्थ?

प्रोफेसर संजय कुमार कहते हैं कि चुनाव आयोग की गाइडलाइन के मुताबिक वोटर्स को लुभाने के लिए धर्म का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. अब्बा जान का प्रॉक्सी इस्तेमाल किया रहा है. यह शब्द एक खास धर्म से जुड़ा है. यह बताने की कोशिश कर रहे हैं सीएम कि समाजवादी पार्टी (SP) अल्पसंख्यक समुदाय को लुभाती है और बहुसंख्यकों को नजरअंदाज करती है. बार-बार एक ही बात करने से लोगों को यह लगने लगता है कि वास्तव में अल्पसंख्यक समुदाय खासकर मुस्लिम तुष्टिकरण किया जा रहा है.

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2017 में श्मशान-कब्रिस्तान की शब्दावली चर्चा में थी. ऐसी शब्दावली से वोटों का बंटवारा कैसे हो जाता है? इस सवाल के जवाब में प्रोफेसर संजय ने कहा कि हमें पता है कि श्मशान और कब्रिस्तान का साकेंतिक मतलब क्या है. मुस्लिमों के लिए कब्रिस्तान होता है और हिंदू के लिए श्मशान. ऐसे में ये धर्म के आधार पर वोटरों को लुभाने के लिए प्रॉक्सी शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है.

वो कौन से वोटर हैं, जो ऐसे शब्दों-नारों से प्रभावित होते हैं?

प्रोफेसर संजय बताते हैं कि यह बहुसंख्यक समुदाय को लुभाने की कोशिश है. ऐसे वोटर्स में शहरी मतदाता, जिसे हम मिडिल क्लास कहते हैं, उसके प्रभावित होने की गुंजाइश ज्यादा रहती है. ग्रामीण इलाकों में एक समुदाय की दूसरे पर निर्भरता ज्यादा रहती है, जबकि शहरी इलाकों के लोगों के साथ ऐसा नहीं है. ऐसे में धार्मिक दृष्टिकोण से इनके स्विंग होने का खतरा ज्यादा होता है.

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उनका कहना है कि यह बताना मुश्किल है कि कितना पर्सेंट वोट स्विंग करता है. हालांकि उन्होंने कहा कि अगर 3-4 फीसदी वोटर्स भी स्विंग हुए, तो किसी पार्टी के लिए एक बहुत बड़ी बात होती है. उनके मुताबिक एक चुनाव में तकरीबन 5-7 फीसदी स्विंग वोटर्स तो होते ही हैं.

क्या टेंपल रन का फायदा मिलता है पार्टियों को? आम आदमी पार्टी अयोध्या जा रही है, प्रियंका गांधी मंदिर जा रही है, बीएसपी ब्राह्मणों को लुभा रही है, क्या इसका असर बहुसंख्यकों पर होता है? प्रोफेसर संजय का कहना है कि यह ट्रेंड पिछले एक दशक में ज्यादा मजबूत हुआ है. वह इसे एक्सप्लेन करते हुए बताते हैं कि पहले अल्पसंख्यक वोटर्स को लुभाने की कोशिश होती थी. बीजेपी ने इस ट्रेंड को बदला. उन्होंने बहुसंख्यक वोटर्स को लुभाने की रणनीति बनाई. इसका फायदा उन्हें 2014, 2019 के चुनावों में मिला. अब दूसरे दल भी इस रणनीति को अपना रहे हैं और बीजेपी के नक्शेकदम पर जा रहे हैं.

क्या ‘बड़ा हिंदू कौन’ की लड़ाई चल रही है?

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सीएसडीएस के प्रोफेसर संजय कुमार बताते हैं कि समाजवादी पार्टी, बीएसपी, आरजेडी जैसी पार्टियों ने अलग-अलग जातियों के बीच अपना जनाधार बनाया. अल्पसंख्यक वोटर्स को लुभाने की कोशिश की. इसे तोड़ने के लिए बीजेपी ने धर्म का कार्ड खेला. बीजेपी ने यह बार-बार बताया कि अल्पसंख्यकों को फायदा दिया गया. अब जाति समीकरण पर काम करने वाली पार्टियों ने भी धर्म का सहारा लेना शुरू किया.

यूपी में AAP की राजनीति क्या?

प्रोफेसर संजय कुमार बताते हैं कि AAP ऐसे राज्यों में कोशिश कर रही है, जहां दो पार्टियों के बीच लड़ाई है, जैसे उत्तराखंड, गुजरात, गोवा जैसे राज्य. यही कोशिश AAP ने दिल्ली में भी की और उनकी कोशिश सफल रही. AAP यह मान रही है कि दो पार्टियों के संघर्ष वाली स्थितियों से जनता का मोहभंग हो रहा और वह इस पॉलिटिकल वैक्यूम का फायदा उठा सकती है.

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