शूद्र पॉलिटिक्स: मायावती की तिलमिलाहट बताती है कि अखिलेश यादव राइट ट्रैक पर हैं? समझें
उत्तर प्रदेश में एक बार फिर 90 के दशक वाले मंडल बनाम कमंडल की सियासत की जमीन तैयार होते नजर आ रही है. अगर आप…
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उत्तर प्रदेश में एक बार फिर 90 के दशक वाले मंडल बनाम कमंडल की सियासत की जमीन तैयार होते नजर आ रही है. अगर आप…
उत्तर प्रदेश में एक बार फिर 90 के दशक वाले मंडल बनाम कमंडल की सियासत की जमीन तैयार होते नजर आ रही है. अगर आप अपनी राजनीतिक याद्दाश्त को थोड़ा पीछे 90 के दशक में ले जाएं तो आप पाएंगे कि माहौल भी कमोबेश एक जैसा है. तब अयोध्या में राम मंदिर बनाने का आंदोलन अपने उरूज पर था और आज शालिग्राम शिला नेपाल होते हुए अयोध्या पहुंच चुकी है. राम मंदिर तैयार होने की टाइमिंग 2024 में बताई जा रही है, यानी वो साल जब देश में लोकसभा चुनाव होंगे. इस बीच अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने कमंडल पॉलिटिक्स के बरअक्स रामचरितमानस की एक चौपाई को लेकर उपजे विवाद के बीच शूद्र पॉलिटिक्स (सहूलियत के लिए मंडल पॉलिटिक्स का एक्सटेंशन समझ लें) का पासा फेंक दिया है. बीजेपी की तरफ से इसपर सधी प्रतिक्रिया सामने आ रही है, लेकिन मायावती तिलमिला गई हैं.
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अब सवाल यह है कि क्या मायावती की तिलमिलाहट इस बात की ओर इशारा कर रही है कि अखिलेश सही रास्ते पर हैं? आइए इसी को समझने की कोशिश करते हैं.
पहले शूद्र पॉलिटिक्स का एक बैकग्राउंडर
यूपी में पिछले कुछ दिनों से रामचरितमानस की एक चौपाई को लेकर विवाद खड़ा हो गया है. असल में सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने एक चौपाई पर सवाल उठाते हुए रामचरितमानस पर ही बैन लगाने की बात कह दी. इसके बाद हंगामा मच गया. संत-महंत समाज के साथ बीजेपी ने भी तीखी प्रतिक्रिया दी. इस बीच अखिलेश यादव न सिर्फ मजबूती से स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ खड़े नजर आए बल्कि सीएम योगी आदित्यनाथ को ही चैलेंज कर दिया. अखिलेश ने कहा कि वह तो विधानसभा में सीएम योगी से इस चौपाई का अर्थ पूछेंगे और जानना चाहेंगे कि हममें से कौन-कौन शूद्र है. उन्होंने कहा, ‘मैं मुख्यमंत्री जी से पूछने जा रहा हूं कि मैं शूद्र हूं कि नहीं हूं?’
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मायावती की प्रतिक्रिया भी जान लीजिए
बीजेपी की सधी प्रतिक्रिया के बीच मायावती ने अखिलेश की इस शूद्र पॉलिटिक्स पर तगड़ा तंज कसा. उन्होंने शुक्रवार को सीरीज में ट्वीट कर अपनी बात रखी. मायावती ने कहा कि कमजोर और उपेक्षित वर्गों का ग्रंथ रामचरितमानस या मनुस्मृति नहीं बल्कि भारत का संविधान है. उन्होंने यह भी कहा कि भीमराव अंबेडकर ने कभी भी वंचित तबके को शूद्र नहीं कहा, इसलिए सपा ऐसा कहकर इनका अपमान न करे. मायावती ने इसी के साथ 2 जून 1995 को हुए गेस्ट हाउस कांड को भी याद किया और कहा कि सपा प्रमुख को इसको याद कर अपने गिरेबान में झांकना चाहिए.
आखिर मायावती क्यों तिलमिला गईं? 2019 में जब अखिलेश और मायावती के बीच लोकसभा चुनावों से पहले महागठबंधन हुआ, तो एकबारगी लगा कि बसपा सुप्रीमो ने गेस्ट हाउस कांड को भुला दिया है. जिन पाठकों की रुचि गेस्ट हाउस कांड के बारे में विस्तार से पढ़ने की हो, वो यहां क्लिक कर इसे पढ़ सकते हैं. खैर, आज अचानक मायावती को जब गेस्ट हाउस कांड फिर से याद आया, तो सवाल ये उठे कि उनकी तिलमिलाहट के पीछे का राज क्या है?
कहीं ये खिसकते जनाधार को देखते हुए उपजी खीझ तो नहीं? इस बात को चुनावी आंकड़ों से आसानी से समझा जा सकता है. 2022 के विधानसभा चुनावों में बीएसपी को महज 12.9 फीसदी वोट मिले, जबकि 2017 के चुनावों में पार्टी का वोट शेयर 22.23 फीसदी था. यानी 9 फीसदी के करीब की गिरावट देखने को मिली. सीएसडीएस और लोकनीति के पोस्ट पोल आंकड़े बताते हैं कि मायावती के कोर वोट बैंक यानी जाटव और दलित वोट बैंक में जमकर सेंध लगी. 2017 में जहां 87 फीसदी जाटव मायावती के साथ थे, तो 2022 में ये आंकड़ा घटकर 65 फीसदी हो गया. 2017 में अन्य अनुसूचित जातियां जहां 44 फीसदी मायावती के साथ थीं, तो 2022 में ये घटकर 27 फीसदी हो गईं.
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किसको गया मायावती का बेस वोट?
सवाल यह है कि बीएसपी से उसका कोर वोट बैंक छिटका तो किसके पास पहुंचा? ये बंटा बीजेपी गठबंधन और सपा गठबंधन के बीच. 2017 में जहां 8 फीसदी जाटव बीजेपी के साथ थे, तो 2022 में इनकी संख्या बढ़कर 21 फीसदी हो गई. ऐसे ही 2017 में सपा के साथ 3 फीसदी जाटव थे, तो 2022 में बढ़कर 9 फीसदी हो गए. अन्य एससी जातियों के साथ भी ऐसा ही दिखा. 2017 में ये जातियां जहां 32 फीसदी बीजेपी के साथ थीं, वहीं 2022 में बढ़कर 41 फीसदी हो गईं. 2017 में जहां ये जातियां 11 फीसदी सपा के साथ थीं, तो 2022 में ये आंकड़ा बढ़कर 23 फीसदी हो गया.
यानी अखिलेश भी सेंधमारी में रहे कामयाब
मायावती की असल चिंता का राज यही है कि अखिलेश भी उनके परंपरागत वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाब नजर आ रहे हैं. अब यूपी में रामचरितमानस की चौपाई के बहाने अखिलेश ने फिर एक बार अगड़ों-पिछड़ों और दलितों की राजनीति खेल दी है. उनके सिपलहसलार स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेता हैं, जो खांटी अंबेडकरवादी हैं और यूपी 85 बनाम 15 फीसदी की सियासत की वकालत करते हैं. ऐसे में मायावती का बिफरना स्वभाविक नजर आ रहा है. मायावती को कहीं न कहीं इस बात की चिंता जरूर है कि अगर यह राजनीति लंबी खींची तो उनके आधार वोट बैंक पर इसका असर जरूर पड़ेगा.
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